मन के काग़ज़ पर इक दुनिया रोज़ बनाती हूँ।

मन के काग़ज़ पर इक दुनिया रोज़ बनाती हूँ।

फिर उस दुनिया के मैं क्या क्या ख़्वाब सजाती हूँ

ख़्वाब कि 'जिसमें फूलों जैसा दिल रखते हों लोग

औरों के सुख दुख को भी अपना कहते हों लोग

ख़्वाब कि 'जिसमें दूर ज़हन से नफरत का तम हो

हर मौसम बस प्यार प्यार बस प्यार का मौसम हो 

इन अभिलाषाओं के दीपक रोज़ जलाती हूँ।

ख़्वाब कि 'जिसमें कोई भूखे पेट न सो पाये

जीने का अधिकार और सम्मान न खो पाए

ख़्वाब कि 'जिसमें स्वर्ग सी धरती की इक आशा हो

मेरी दुनिया की भाषा बस प्यार की भाषा हो 

सच होंगें मेरे सपने ख़ुद को समझाती हूँ।

ख़्वाब कि 'जिसमें नारी को नारी सा मान मिले

हर बचपन के चेहरे पर हरदम मुस्कान खिले

ख़्वाब कि 'जिसमें हर यौवन सदराह पे चलता हो

और बुज़ुर्गों का जीवन मजबूर न दिखता हो

ऐसी सुन्दर दुनिया की बुनियाद उठाती हूँ।

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (27-09-2020) को    "स्वच्छ भारत! समृद्ध भारत!!"    (चर्चा अंक-3837)    पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीया सोनरूपा विशाल जी, नमस्ते👏!
    आपकी रचना आशा के पथ को आलोकित करती है। ये पंक्तियाँ: "ऐसी सुन्दर दुनिया की बुनियाद उठाती हूँ।" सकारात्मकता की ओर बढ़ने का संदेह देती हैं। साधुवाद!
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    सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

    जवाब देंहटाएं

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