दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर

तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए,
छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं.
हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत,
तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं.
नई कविता की खुरदुरी बयानगी से उकताए पाठकों के लिए दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों की मशालें एक नया उजाला लेकर आईं।आशावान समाज जब तत्कालीन सत्ता की हिटलरी कार्यशैली से निराश हो कर क़िस्मत की ढहती दीवार पर सिर टिकाये बैठा था उस समय उनकी ग़ज़लें उसके दर्द की सहोदर प्रतीत हुईं।
सर्वरूपेण,सर्व संवेद्य,जागरूक और जनमानस के द्वारा सर्वाधिक स्वीकार्य दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर जनमानस की आवाज़ बने।अविस्मरणीय ग़ज़लों के प्रणेता दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है।
एक बार पुनः उनका लेखन उसी विराटता के साथ सामने उपस्थित हो गया है जैसे तत्कालीन समय में बिगुल की तरह बजा था।
प्रणाम उन्हें 🌼

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