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सितंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़ेब के सूराख

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गरीब की ज़ेब के सूराख से  रेत की तरह   त्यौहार बिना गाये  बजाये बीवी की पांच ग़ज की साड़ी बच्चों की भूख कि निवाले माँ-बाप के दर्द के मरहम बड़ी आसानी से निकल जाते हैं भले ही किस्मत नहीं खुल पाती जिंदगी भर  उसकी पर सूराख हमेशा खुले रहते हैं ....

लहरों... बस कुछ देर और

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   लहरों बस थोड़ी देर और ठहरी रहना मैं वो सब कुछ लिख देना चाहती हूँ जिसे मिटाना चाहती हूँ .... आज हो कल नहीं होगी तुम      मेरे साथ  तब मन को साथ ले लूँगी उस पर लिखूंगी वो बातें जिन्हें मैं लिखना भी चाहती हूँ पर मिटाना भी.....

ओपरा विन्फ्रे

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तुम सहज हो मुखर हो वाकपटुता तुममें लाजवाब कर देने वाली है प्रेजेन्टेवल हो उन्मुक्त हो मधुर हो, तुम्हारे इन स्वभावों के बीजों को पानी देने का काम एक अद्रश्य शक्ति ने किया है| ये वो शक्ति है जिसने प्रताड़ित मर्दित शोषित वंचित 'ओपेरा विन्फ्रे ' को सूत्रधार बनाया है एक ऐसी जिंदगी का जहाँ  उसका बीता हर दर्द वो चीज़ है जिसकी कीमत उसके वर्तमान के सुख से ऊर्जित ज़िन्दगी से आँकी जाती है|     अभी हाल ही में मैंने  'अहा ज़िन्दगी' के अंक में मेरी पसंदीदा शख्सियतों में से एक ओपेरा विन्फ्रे के बारे में पढ़ा| उनके ज़िन्दगी के अंजान सच को जानकर इस जिंदगी के सार को और गहरे से समझ पा रही हूँ कि 'जिंदगी चलती ही जायेगी'...

'आपका साथ' आपके साथ

मेरा स्वर आप तक ..........( मेरी ऑडियो एल्बम 'आपका साथ ' ,मेरे पिता जी डॉ. उर्मिलेश द्वारा रचित कुछ ग़ज़लें )