देखो न इस बार मैंने कितनी ख़ुशबुएँ बोई हैं लॉन में तुम भी कभी कभी रजनीगंधा के फूल बाज़ार से ले आया करो, मुझे फिर से फूलों के प्रिंट की साड़ियाँ सुहाने लगी हैं तुम भी कभी कभी वो कुछ 'ख़ास' ग़ज़लें गुनगुनाया करो, मैंने अबकी बार घर की दीवारों को समंदर के रंग सा रंगवाया है तुम भी मेरे साथ तितलियों के रंग से परदे ,हवाओं सी चादरें,चिड़ियों सी चहचहाती पेंटिग्स सजवाया करो, तुम भी जानते हो मैं भी हम अब 'ऑप्टिमिस्टिक' होना चाहते हैं, उलझनों की गिरफ़्त अहसासों की छुअन तक का गला घोंट देती है, क्यों ना चलो कुछ यूँ कर लें फिर से पिरोयें अहसास कोशिशों के धागे से