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अक्तूबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सुख की बिछी बिसात हो दीपावली की रात

सुख की बिछी बिसात हो दीपावली की रात हर पल खुशी की रात हो दीपावली की रात दिन भर जो श्रम की धूप में तपते रहे यहाँ उनकी हरेक रात हो दीपावली की रात होली के साथ ईद भी रोशन करे चिराग कुछ ऐसी करामात हो दीपावली की रात

बस द्वारे ही है रौशनी की बारात

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मिट्टी के कुछ ढेले दीयों के आकार में ढल रहे हैं रोशनियों की बारात हमारे द्वारे खड़ी है बहुत उमंगें हैं लक्ष्मी जी की मुँह दिखाई करने की मन में त्योहारी तैयारियाँ थका रही हैं लेकिन थकान को तो जैसे ठंडी होती जा रही रात की नर्म हवा सहलाकर नींद की गोद देकर दूर छिटक कर कहती है अभी कुछ दिन और बाक़ी है उस अमावस की रात को जिस रात दीवाली की फुलझडियाँ छिटकेंगी आंगन में अलसाई हुई अंगडाईयां नहीं नहीं अभी नहीं अभी तो इंतज़ार है रौशनी की बारात का .........

गुंजाइश है क्या ?

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रिश्तों के दफ़्तरों में सुबह से शाम तक की हाजिरी की थकान से पस्त इंसान को घर (ख़ुद )में भी आकर भी सुकून कहाँ, सुकून के लिए किसी को समर्पण और किसी का समर्पण ज़रूरी है और हाजिरी में समर्पण की गुंजाइश है क्या ?

आज रात 'जगजीत' बेफ़िक्र नींद सोये हुए हैं .....

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आज रात 'जगजीत' बेफ़िक्र नींद सोये हुए हैं ...... टी.वी. के सारे न्यूज चैनल बदलते बदलते ,जगजीत जी पर ख़ास पेशकश छानते - छानते रात के दो  बज चुके हैं  और अब क्यों कोई  चैनल जगजीत जी पर कुछ ख़ास पेश करेगा  बस इसी वजह से रिमोट पर मेरी उँगलियाँ उन्ही की तस्वीरें ,उन्ही की ग़ज़लें ढूँढ रही हैं, बेचैन सी  हूँ  उन पर जितना कवरेज देख सकूं देख लूं  ..... नींद ने मुझे आज इजाजत दे दी है कि जाओ जागो अपने जगजीत के साथ .... लेकिन जगजीत जी  के आज बिना धड़कन के सो रहे है बस इसी बात का तसव्वुर ना जाने कितनी देर मुझे और जगाएगा | मेरी प्रेरणा सो चुकी है इससे ज्यादा क्या  कहूँ ? क्यों शिकायत करूँ मैं अपनी आँखों से कि क्यों नहीं झपकती पलकें इतनी रात गए ........... मेरी हर कम्पोज की हुई गजलों में जगजीत जी का अंदाज  शामिल ना हुआ हो ऐसा बहुत कम हुआ और अगर हुआ भी तो वो धुन से  मेरा रिश्ता क़रीबी  नहीं रहा,कई बार सोचा इस बार कुछ संजीदगियाँ और साद्गियाँ कम और सुरों की हरकतें ज्यादा ......लेकिन पहला प्यार तो आख़िर पहला ही होता है और पहला प्यार था जगजीत का अंदाज......और मैं  लौट  फेरकर वहीं  फिर

चलो कुछ यूँ कर लें

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देखो न इस बार मैंने कितनी ख़ुशबुएँ बोई हैं लॉन में तुम भी कभी कभी  रजनीगंधा के फूल बाज़ार से ले आया करो, मुझे फिर से फूलों के प्रिंट की साड़ियाँ सुहाने लगी हैं तुम भी कभी कभी  वो कुछ 'ख़ास' ग़ज़लें गुनगुनाया करो, मैंने अबकी बार   घर की दीवारों को समंदर के रंग सा रंगवाया है तुम भी मेरे साथ तितलियों के रंग से परदे ,हवाओं सी चादरें,चिड़ियों सी चहचहाती पेंटिग्स सजवाया करो, तुम भी जानते हो मैं भी हम अब 'ऑप्टिमिस्टिक'  होना चाहते हैं, उलझनों की गिरफ़्त अहसासों की छुअन तक का गला घोंट देती है, क्यों ना चलो कुछ यूँ कर लें फिर से पिरोयें अहसास कोशिशों के धागे से