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रतजगों का हिसाब रहने दो

रतजगों का हिसाब रहने दो कुछ अधूरे से ख़्वाब रहने दो   झील सा दायरे में मत बाँधो कोशिशों को चिनाब रहने दो  सिर्फ़ सूरत का क्या है,कुछ भी नहीं अपनी सीरत गुलाब रहने दो राब्ता कुछ तो तुमसे रखना है तुम वो सारे जवाब रहने दो  चाहती हूँ कि तुमसे कह दूँ मैं तुम मेरा इंतेखाब रहने दो  एक दूजे को पढ़ चुके हैं हम बंद अब ये किताब रहने दो सोनरूपा  चिनाब -नदी का नाम इंतखाब-चुनाव

पूर्णचन्द्र सा प्यार है मेरा, पर जुगनू सा प्यार तुम्हारा

पूर्णचन्द्र सा प्यार है मेरा, पर जुगनू सा प्यार तुम्हारा इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवन गीत हमारा। प्रेम हमारा था इक पौधा हमने मिलकर वृक्ष बनाया लेकिन पतझड़ मेरे हिस्से तुमने केवल चाही छाया   तुम मीठा जल पीने वाले, कैसे पीते पानी खारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  तन होता जब भी एकाकी मन तब पास चला आता है स्मृतियों की गुँथी चोटियाँ खोल खोल कर उलझाता है  तब पढ़ना पड़ता भूला सा, पाठ दुबारा और तिबारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  तुम यदि साधन साध्य समझते हम दोनों अमृत घट भरते इक दूजे को सृजते सृजते अंतर्मन पर सतिये धरते  निष्ठा प्रश्न पूछती तुमने, मुझको शनै: शनै: क्यों हारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  दीवारों की दरकन पर मैं कब तक इक तस्वीर सजाऊँ कब तक कड़वे पान के पत्ते पर मिश्री गुलकंद लगाऊँ डूब रही साँसों को देना है, मुझको अब शीघ्र किनारा। इसीलिए अब तक अनगाया है, ये जीवनगीत हमारा

पिता

जीवन से लबरेज़ हिमालय जैसे थे पुरज़ोर पिता मैं उनसे जन्मी नदिया हूँ मेरे दोनों छोर पिता प्रश्नों के हल,ख़ुशियों के पल, सारे घर का सम्बल थे, हर रिश्ते को बाँधने वाली थी इक अनुपम डोर पिता जीवन के सब तौर तरीक़े, जीवन की हर सच्चाई  सिखलाया करते थे हम पर रखकर अपना ज़ोर पिता जब हम बच्चों की नादानी माँ से संभल न पाती थी तब हम पर गरजे बरसे थे बादल से घनघोर पिता रोज़ कई किरदार जिया करते थे पूरी शिद्दत से कभी झील की ख़ामोशी थे कभी सिंधु सा शोर पिता  दिल अम्बर सा, मन सागर सा,क़द काठी थी बरगद सी चाँद से शीतल,तप्त सूर्य थे ईश्वर से चितचोर पिता सब कुछ है जीवन में लेकिन एक तुम्हारे जाने से रात सरीखी ही लगती है मुझको अब हर भोर पिता ।

गीतऋषि बलवीर सिंह 'रंग'

हिंदी गीत को मंच पर प्रतिष्ठित करने में यदि कुछ नाम लिए जाएं तो उनमें श्री बलवीर सिंह 'रंग' का नाम  प्रमुखता से लिया जाता है। गीत में मौलिक चिंतन,ग्राम्य परिवेश,पुरातन में परिष्कृत नवीनता के सारथी,विस्तृत भावभूमि के रचनाकार,हिंदुस्तानी भाषा के पक्षधर,दोनों बाँहों में गीत-ग़ज़ल को थामे रहने वाले बलवीर सिंह 'रंग' के रंग ने हिन्दी साहित्य प्रेमियों को पूरा सराबोर कर दिया है। हिंदी गीत की कोई भी आलोचना और समीक्षा रंग जी के बिना अधूरी है ।आप ये भी कह सकते हैं कि हिन्दी गीत का रंग ही रंग जी के गीतों बिना फ़ीका है। हिन्दी ग़ज़ल का उदगम भी नि:संदेह रंग जी द्वारा हुआ। क्या अद्भुत तौर से उन्होंने हिन्दी के शब्दों को ग़ज़लों में पिरोया।  ज़िला एटा हमारे बदायूँ से बेहद नज़दीक है।वहीं उनका जन्म हुआ। यहाँ एक ज़िक्र मैं करना चाहूँगी कि रंग जी हमारे शहर के ज़िला अस्पताल में इलाज के लिए आये और फिर कई महीनों के लिए यहीं के होकर रह गए। अस्पताल में ही ख़ूब कविताओं की महफ़िल जमती।पिता जी और बदायूँ के सभी साहित्यकार वहाँ रोज़ हाज़िरी लगाते।मैं तो सोच सोच कर ही उस आनंद का अंदाज़ा लगाती हूँ। पिता जी डॉ उर्मिल