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सार्थक हो गीत तब सदभाव का

कालिमा के कंचनी बदलाव का गीत गाना है हमें सद्भाव का चाँद से लेती किराया रात क्या ? भेद करती है किसी से प्रात क्या ? फूल देते हैं कभी आघात क्या ? पेड़  के  बैरी  बने हैं पात क्या  प्रश्न जो समझा रहे उस भाव का गीत गाना है हमें सदभाव का सर्द से रिश्तों को गर्माहट मिले सूनी गलियों को मधुर आहट मिले गुमशुदा नावों को अपना तट मिले हर रुदन को शीघ्र मुस्काहट मिले    न क्षणों के सुखमयी दोहराव का गीत गाना है हमें सदभाव का  रुख़ हवा का मोड़ने का प्रण करें चाह परिवर्तन की जन गण मन करें देश सर्वोपरि रहे निज स्वार्थ से भावना सच्ची ये सब धारण करें अंत हो, आतंक का, अलगाव का सार्थक हो गीत तब सदभाव का ।

तुम आ जाओ दोबारा ज़िन्दगी में

ये बारिश धुंध सारी धो रही है मेरी अब बात ख़ुद से हो रही है महकना था जिसे सबके दिलों में वो ख़ुश्बू काग़ज़ों में सो रही है ये कैसा हादसा गुज़रा है उस पर वो लड़की सोते सोते रो रही है तुम आ जाओ दोबारा ज़िन्दगी में तुम्हारी याद धुँधली हो रही है किसे है फ़िक्र उसका ध्यान रक्खे सो चींटी ख़ुद किनारे हो रही है बड़ी पगली हूँ इतने में ही ख़ुश हूँ कि मेरी बात तुझसे हो रही है भटकते फिर रहे हैं पात्र सारे उधर पूरी कहानी हो रही है   

जाने क्यों ये निभा रहे हैं बेमन से दस्तूर

अपने हैं बस थोड़े से हम बाहर के भरपूर जाने क्यों ये निभा रहे हैं बेमन से दस्तूर जैसे लम्बी बाट जोहकर नभ में खिलती भोर हम भी ख़ुद से मिलने आते अपने मन की ओर कभी लिए मन में कोलाहल कभी लिए सन्तूर, अपना जीवन जीते हैं जो औरों के ढंग से दूर रहा करते हैं फिर वो अपने ही संग से अपनी ही आंखों को चुभते होकर चकनाचूर हर पल आओ जी लें जैसे अंतिम है ये पल सत्य छुपा है अपने भीतर बाक़ी सब है छल इसी नज़रिए से मिल पायेगा जीवन को नूर 

वो अपने आप को मंज़िल नहीं बनाएगा

नदी बनाएगा साहिल नहीं बनाएगा वो अपने आप को मंज़िल नहीं बनाएगा कहाँ से लाऊँ मैं वो ख़्वाब अपनी आँखों को जो मेरी नींद को बोझिल नहीं बनाएगा वो जब बनायेगा इस दौर का कोई इंसा बदन तो देगा मगर दिल नहीं बनाएगा तो फिर सफ़र की कहानी अधूरी रहनी है   अगर वो रास्ता मुश्किल नहीं बनायेगा मेरा मिज़ाज मुझे और कुछ न दे लेकिन मुझे ज़मीर का क़ातिल नहीं बनाएगा इक ऐसे चेहरे को अक्सर तलाश करती हूँ मेरी नज़र को जो धूमिल नहीं बनाएगा

यात्रा डायरी

कल से 1 महीने की इंग्लैंड यात्रा प्रारंभ! पहले 15 दिन 12 शहरों में 12 कवि सम्मेलन फिर 15 दिन विशाल और बच्चों के साथ यू के का टूर !  मुझे ख़ुशी है कि आई सी सी आर,भारतीय उच्चायोग ब्रिटेन और इंग्लैण्ड की विभिन्न संस्थाओं द्वारा हर वर्ष आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में इस बार मुझे भी न्यौता मिला है !  ये मेरे लिए,मेरे साथी कवियों के लिए एवं इस आयोजन से जुड़े प्रत्येक सदस्य के लिए एक स्मरणीय अनुभव बने ऐसी कामना है!  सिर्फ़ सूचना भर देना ,बधाईयाँ पा लेना कभी- कभी औपचारिक सा लगता है ! मैं चाहती हूँ कि मैं बताऊँ कि आज से डेढ़ वर्ष पूर्व हिंदी भवन दिल्ली में आयोजित एक कवि सम्मेलन सुनने ब्रिटिश होम मिनिस्ट्री से एक ऊँचे पद से रिटायर्ड आदरणीय श्री के बी एल सक्सेना जी आये थे जिसमें मैंने भी काव्यपाठ किया था!उस कवि सम्मेलन को सुनकर उन्होंने मुझे बहुत आशीर्वाद दिया और प्रशंसा की! इधर जब पिछले वर्ष मैं अमेरिका गयी तो वहाँ से लिखे गए मेरे संस्मरण अंकल निरन्तर पढ़ते रहे!मेरे द्वारा पापा को लिखी भावुक चिट्ठी भी! एक दिन उनका एक लंबा और बहुत सुंदर मैसेज मुझे मिला ! उन्होंने कहा सोनरूपा मैं निरन्तर तुम्हारा ल

पापा को खत

पापा मई का महीना बहुत कम लोगों को अच्छा लगता होगा, कितना गर्म,बेरौनक,सूनसान सा! लेकिन ये महीना मुझे कुछ ज़्यादा ही बुरा लगता है! क्यों कि आप मई में ही तो चले गए थे!तब से लगता न आने दूँ धूप की कोई किरण घर के अंदर, सारे पर्दे बंद रखूँ,न पता लगे मुझे कि गर्मी आ गयी है!बीत जाए ये मई किसी तरह ! पापा आप तो जानते ही हैं चंचल मन है मेरा !मैं पूजा करते समय एक ट्रिक आजमाती हूँ 108 बार जब सूर्यमंत्र का जाप करती हूँ तो सुबह का बाल सूर्य ज़हन में रखती हूँ जो राजमहल गार्डन में लगे बेल के पेड़ के पीछे से नारंगी- नारंगी झाँकता है!  लेकिन पापा ख़ास मई महीने में मैं जब भी इस नन्हे सूरज को याद करती हूँ मुझे 4 मई की वो भयानक सुबह याद आ जाती है जब आपको अलसुबह ब्रेन हेमरेज हुआ था! फिर किसी तरह मैं मंत्र पूरे कर पाती हूँ!  लेकिन पापा इधर पिछले कुछ सालों से मैं घर के अधिकतर सारे पर्दे खोलने लगी हूँ!पूरे साल चाहें गर्मी,बरसात हो या ठंड!मेरे कमरे के पर्दे पूरी रात खुले रहते हैं चाँद तारे सँग सोते हैं मेरे! पापा मुझे डर भी नहीं लगता घनी रात से,झींगुर की आवाज़ से! सुबह जब सूरज की किरणों मेरे चेहरे पर पड़ती हैं तो मैं फ

अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये

सृष्टि का आधार हैं,संरचनाएँ हैं जीवन की इंद्रधनुषी छटाएँ हैं धूप में छाँव देने वाली प्रथाएँ हैं रिश्तों को संजोने वाली सभ्यताएँ हैं त्याग,तप,शौर्य, धैर्य की कथाएँ हैं हम भोर सी पुनीत भावनाएँ हैं इसलिए काम ये ज़रूर कीजिये अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये! ज़िन्दगी को जन्म देने के सुभागी हम घर के ज़र्रे ज़र्रे के अनुराग हम प्रेम,त्याग,ममता के अनुगामी हम मन की कठोरता के प्रतिगामी हम चाँद पर भी क़दम रख आये हैं हिम आलय की बर्फ़ चख आये हैं गर्व ख़ुद पर बदस्तूर कीजिये अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये! नदिया की धार कभी मुड़ती नहीं बेगवान वायु कभी रूकती नही पर्वतों की श्रृंखलाएं झुकती नहीं जोश भरी वाणी कभी घुटती नही आप किसी से भी कमज़ोर नहीं हैं आँसू भरे नयनों की कोर नहीं हैं मन से समस्त भ्रम दूर कीजिये अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये! पिता,पति,पुत्र का प्रशासन सहें भीतर भीतर रोज़ ख़ुद को दहें कब तक सबके आदेशों को सुनें ज़िन्दगी को अपने तरीक़े से जियें बहुत हुआ ये शोषण का सिलसिला क़िस्मत से न अब कीजिये  गिला  शिक्षा से ये अन्धकार दूर कीजिये अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये! अपने हितों के प्रति मुखर बनें स्वाभिमान वाला नेक रास्ता च

देश से बढ़कर न समझी हमने कोई प्रीत है

ब्याहता है जोश की जो शौर्य से परिणीत है वो शहादत मौत क्या है ज़िन्दगी की जीत है  मन में गीता के कथन और तन में फ़ौलादी जुनूं फिर विजय हर जंग में अपनी सदा निर्णीत है घर की देहरी तज बढ़े जो देश रक्षा के लिए चाप उन क़दमों की लगती क्रांतिकारी गीत है  माँग सूनी,गोद ख़ाली,कह रही टूटी छड़ी देश से बढ़कर न समझी हमने कोई प्रीत है  है नमन शत शत हमारा एक इक जांबाज़ क   शत्रु की हिम्मत भी जिनके सामने भयभीत है