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नया साल

 समय और अनुभव समानांतर चलते हैं। दोनों मिलकर जीवन को स्पष्ट करते चलते हैं।इस वर्ष कुछ ज़्यादा स्पष्टतायें महसूस हुईं हमें।जीवन की अनिश्चितता ने वर्तमान को जीना ज़्यादा सिखाया भविष्य को कम।निर्लिप्तता का महत्व समझा है।कविता ने मुझ पर बड़ा परोपकार किया है। थोड़ा और समझा है  क्यों हूँ मैं,क्या हूँ मैं,क्या होना चाहती हूँ मैं। मैंने अपने मन का समय ख़र्च करना सीखा। वहाँ बचाया ख़ुद को जहाँ मेरा जाया होना निश्चित था।रो ली जब रोना आया बिना झेंपे, हँसी भी ऐसे ही।अब और ज़्यादा धैर्य से सुनती हूँ उनको जिनको ज़रूरत है एक भरोसेमंद सुनने और समझने वाले की।कहने भी लगी हूँ वो बातें जो मैं ख़ुद से ज़्यादा करती थी।मैंने उम्र को अपनी चन्चलताओं पर रोक नहीं लगाने दी।गिलहरी बनी रही।अच्छा लगा कि मेरे जैसे कई नए लोग इस साल जुड़े।मैं अपने मत पर और दृढ़ हुई कि स्वयं की स्वीकार्यता ही सर्व स्वीकार्यता की पहली सीढ़ी है। कृतज्ञता का भाव थोड़ा और बढ़ा। मुक्ति और बन्धन के डोर में पड़े झूले में ख़ूब झूली।  ईर्ष्यालु,अहमी,अस्वस्थ आलोचनाकों,असम्वेदनहीनों और ऐसी ही अनेक दुर्भावनाएं रखने वालों को देखकर दुखी हो जाती हूँ, खीझती हूँ सोचती हू

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर

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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए, छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं. हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं. नई कविता की खुरदुरी बयानगी से उकताए पाठकों के लिए दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों की मशालें एक नया उजाला लेकर आईं।आशावान समाज जब तत्कालीन सत्ता की हिटलरी कार्यशैली से निराश हो कर क़िस्मत की ढहती दीवार पर सिर टिकाये बैठा था उस समय उनकी ग़ज़लें उसके दर्द की सहोदर प्रतीत हुईं। सर्वरूपेण,सर्व संवेद्य,जागरूक और जनमानस के द्वारा सर्वाधिक स्वीकार्य दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर जनमानस की आवाज़ बने।अविस्मरणीय ग़ज़लों के प्रणेता दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है। एक बार पुनः उनका लेखन उसी विराटता के साथ सामने उपस्थित हो गया है जैसे तत्कालीन समय में बिगुल की तरह बजा था। प्रणाम उन्हें

अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ

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अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ, कभी ख़ुद से भी मैं निभाने की सोचूँ. मैं ख़ुद तो उसे भूल जाने की सोचूँ, मगर ख़ुद उसे याद आने की सोचूँ. अगर दिल है भारी तो रोकूँ क्यूँ आँसू , ये मोती कहाँ जो बचाने की सोचूँ. यही बेवकूफ़ी तो करती रही हूँ, जो बाक़ी नहीं वो बचाने की सोचूँ. कभी सोचती हूँ जो सब याद रखना, कभी सब वही भूल जाने की सोचूँ. जो अंदर ही अंदर अगर टूट जाऊँ, तो बाहर से ख़ुद को सजाने की सोचूँ. ज़माना तो काटेगा पर,जानती हूँ, मैं पौधे परों के लगाने की सोचूँ. मैं सोयी थी,अब जाग कर कुछ सुकूँ है, सो सोए हुओं को जगाने की सोचूँ. #सोनरूपा #कवि_सम्मेलन #KaviSammelan #ग़ज़ल #Ghazal

अनुपस्थितियों की अनुगूँज

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  पद्मश्री गोपाल दास नीरज,प्रख्यात कवि वीरेंद्र डंगवाल,गीतकार किशन सरोज,डॉ ब्रजेंद्र अवस्थी,डॉ उर्मिलेश,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान,बदायूँ के ज़ाफ़र हुसैन कव्वाल सहित डेढ़ सौ दिग्गज कलाकारों की आवाज़ धरोहर के रूप में आकाशवाणी दिल्ली के केंद्रीय संग्रहालय की सेंट्रल आर्काइव की गोल्ड केटेगरी में सदा के लिए संरक्षित कर हम सभी साहित्यप्रेमियों और संगीत प्रेमियों के लिए अनमोल उपहार दिया है। लोक संस्कृति को सहेजने और तमाम विधाओं से जुड़े कलाकारों से लोगों को रूबरू कराने के लिए आकाशवाणी रामपुर समय-समय रिकार्डिंग करता रहा है।2013 में ऑल इंडिया रेडियो ने उन हस्तियों की आवाज़ और कला को धरोहर के तौर पर संजोने का फ़ैसला किया था जो अब इस दुनिया में नहीं हैं।रुहेलखण्ड की ज़िम्मेदारी रामपुर आकाशवाणी को मिली।उसके द्वारा चुने गए इन अनमोल नगीनों की आवाज़ों को केन्द्रीय आकाशवाणी ने दुर्लभ मान कर इन्हें सहेज लिया। सच है,ऐसी अनमोल ज़िन्दगी जीना हर किसी की क़िस्मत में नहीं होता।नमन इन सभी शानदार शख़्सियतों को और बधाई आकाशवाणी को इस बढ़िया कार्य के लिए। #आकाशवाणी #AIR

लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ (डॉ. उर्मिलेश की सुप्रसिद्ध ग़ज़ल)

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