ग़ज़ल
रूहानियत में डूब के जब से ग़ज़ल हुई सच मानियेगा बाहर में तब से ग़ज़ल हुई महफ़िल में रौशनी को नई ज़िन्दगी मिली इतनी हसीन आपके लब से ग़ज़ल हुई यूँ तो क़लम संभाले ज़माना गुज़र गया ये कुछ पता नहीं हमें कब से ग़ज़ल हुई लम्हात ख़ास जब भी इसमें बयां किए इक हमसफ़र के जैसी तब से ग़ज़ल हुई ढाला है जब से इसमें मैंने तुम्हारा अक्स मेरी नज़र में आला वो सब से ग़ज़ल हुई मकतब- पाठशाला