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गोपालदास नीरज की जन्मजयंती पर

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  नीरज जी पीड़ा के,दर्शन के,प्रेम के कवि कहलाए जाते हैं। गीतों के वो प्रथम हिमालयीन निर्मल जल जिसका यदि आचमन कर लिया जाए तो जीवन से परिचय हो जाये। प्रीति से प्रतीति की एक डोर। जीवन के प्रारब्ध को बाँचता हुआ संत स्वर जिसका शब्द-शब्द मंत्र हो यानी गोपालदास 'नीरज'।आज उनकी जन्मजयंती है।वो स्वयं को अपने गीतों की सन्तूरी ध्वनियों में स्पंदित कर गए हैं। उन्हें विनम्र प्रणाम प्रेम का पंथ सूना अगर हो गया, रह सकेगी बसी कौन-सी फिर गली? यदि खिला प्रेम का ही नहीं फूल तो, कौन है जो हँसे फिर चमन में कली? प्रेम को ही न जग में मिला मान तो यह धरा, यह भुवन सिर्फ़ श्मशान है, आदमी एक चलती हुई लाश है, और जीना यहाँ एक अपमान है, आदमी प्यार सीखे कभी इसलिए, रात-दिन मैं ढलूँ, रात-दिन तुम ढलो। प्रेम-पथ हो न सूना कभी इसलिए, जिस जगह मैं थकूँ, उस जगह तुम चलो। #गोपाल_दास_नीरज

'दैनिक जागरण विमर्श' कार्यक्रम के अंतर्गत दैनिक जागरण द्वारा सम्मान

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  'दैनिक जागरण विमर्श' कार्यक्रम के अंतर्गत दैनिक जागरण द्वारा सम्मान. ज़िला पंचायत अध्यक्ष रश्मि पटेल जी,शिक्षाविद वंदना शर्मा जी एवं उद्यमी शारदा भार्गव जी के हाथों ये सम्मान प्राप्त हुआ.अच्छा लगा साथ ही एक बार फिर महसूस हुआ कि सोनरूपा ज़िम्मेदारियाँ बढ़ रही हैं तुम्हारी #sonroopa_vishal #दैनिकजागरण #दैनिकजागरणविमर्श2021

|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा || इंदिरा इंदु

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|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा || नवम पुष्प : इंदिरा इंदु अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और सशक्त कविताओं की उत्तम एवं सुरीली प्रस्तुति के कारण काव्य मंचों पर एक अलग और उल्लेखनीय पहचान रखने वाली कवयित्री इंदिरा इंदु जी को आज इस सीरीज़ के माध्यम से प्रणाम कर रही हूँ। महादेवी वर्मा,सुमित्रा कुमारी सिन्हा और स्नेहलता श्रीवास्तव के बाद इंदिरा इंदु मंच से जुड़ी ही नही देश भर में छा गईं। पिता जी डॉ. उर्मिलेश ने 1975 के आसपास से कवि सम्मेलनों के अत्यधिक पसंद किए जाने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठा पा ली थी।बचपन से मैंने देश के अनेक शहरों के नाम सुन लिए थे।लेकिन मुरैना शहर न केवल इसीलिए कि पिता जी वहाँ कविसम्मेलनों में जाते हैं बल्कि इसीलिए भी मेरे लिए परिचित शहर था कि वहाँ इंदिरा इंदु आँटी रहती हैं। मुझे बचपन की कुछ झलकियाँ आज भी याद हैं।जब मैंने पहली बार उन्हें देखा था और मैं उनके लंबे क़द,गले में रुद्राक्ष की माला,घुँघराले लंबे बाल,चौड़े माथे पर लम्बा लाल टीका देख कर बड़ी प्रभावित हुई थी।कद्दावर लगती थीं काफ़ी। मुझे याद है कि जाड़ों में हाई नेक स्कीवी पहना करती थीं साड़ी क

तितलियों ने दिये रंग मुझे

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  तितलियों ने दिये रंग मुझे और चिड़ियाँ चहक दे गईं प्यार की चंद घड़ियाँ मुझे, फूल जैसी महक दे गईं बारिशों ने इशारा किया साथ आओ ज़रा झूम लो देख लो रूप अपना खिला आईने को ज़रा चूम लो ये हवायें,घटायें सभी मुझको अपनी बहक दे गईं। ना को हाँ में बदलने में तुम वाक़ई एक उस्ताद हो सारी दुनिया अदृश हो गयी जबसे तुम मुझमें आबाद हो भावनाएं भी समिधाएं बन मीठी-मीठी दहक दे गईं। चैन की सम्पदा सौंपकर अनवरत इक तड़प को चुना याद का इक दुशाला यहाँ नित उधेड़ा दुबारा बुना लग रहा है कि लहरें मुझे आज अपनी लहक दे गईं । {प्रिय का साथ हो तो सावन ही नहीं, हर मौसम प्यारा लगता है।आज बारिश सा निर्बाध,सरल सा एक गीत} #Sonroopa_vishal #hindigeet #hindipoetry

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सुमित्रा कुमारी सिन्हा

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  ||हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा|| अष्टम पुष्प:सुमित्रा कुमारी सिन्हा सन 1913 में फ़ैज़ाबाद,उत्तर प्रदेश में जन्मी प्रसिद्ध कवयित्री एवं कहानीकार सुमित्रा कुमारी सिन्हा अपने समय की एक बेहद प्रशंसित,चर्चित एवं उल्लेखनीय नाम रहीं। उन्हें छायावाद और यथार्थवाद के सेतु के रूप में पहचाना जाता है। इन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कवयित्री के रूप में किया था।प्रथम काव्य संकलन 'विहाग' के लिए इन्हें इलाहाबाद में एक प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित किया गया। बाल उपयोगी साहित्य और रेडियो रूपक के क्षेत्र में भी इन्होंने व्यापक लेखन किया।इनके तीन काव्य संग्रह 'विहाग','आशा पर्व','बोलों के देवता' प्रकाशित हैं। आज से इतने वर्ष पूर्व जब स्त्रियों का जीवन अत्यंत विसंगतियों भरा था ऐसे समय में भी उनकी कविताओं में स्वाभिमान एवं अपने अस्तित्व के प्रति सजग रहने वाली स्त्री नज़र आती है। सुमित्रा जी 17 वर्ष की उम्र में विवाह हो गया।पति ज़मीदार परिवार से थे।पति का साहित्यिक और सामाजिक जीवन मे इन्हें ख़ूब सहयोग मिला।सुमित्रा जी तीन बेटों एवं एक बेटी की

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || विद्यापति कोकिल

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सप्तम पुष्प : विद्यापति कोकिल मुझको तेरी अस्ति छू गई है अब न भार से विथकित होती हूँ अब न ताप से विगलित होती हूँ अब न शाप से विचलित होती हूँ जैसे सब स्वीकार बन गया हो। मुझको तेरी अस्ति छू गई है ये समय वो था जब पढ़ने लिखने वाले लोग ही काव्य मंच की शोभा हुआ करते थे।विद्यापति 'कोकिल' जी भी एक ऐसी कवियत्री थीं जिन्हें साहित्य में एक प्रतिष्ठित रचनाकार के रूप में याद किया जाता है।अपने समय की वे बहुत नामचीन कवयित्री मानी जाती थीं।सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों उन्हें प्राप्त हुईं। विद्यावती कोकिल जी का जन् ‍ म 26 जुलाई 1914 को मुरादाबाद के हसनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। गीत की उदात्त लेखिका विद्यावती ‘कोकिल’ के जीवन का अधिकांश समय प्रयागराज में बीता। आर्य समाजी तथा देश-भक्त परिवार में जन्म लेने वाली कोकिल जी का स्वयं भी स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय योगदान रहा।इस दौरान उन्हें कारावास यात्रा भी की।इन्होंने जनहित में अनेक कार्य किये।कोकिल जी का कविता लेखन बचपन में ही प्रारम्भ हो गया था।स्कूल-कॉलेज में आते-आते वो परिपक्व लिख

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सावित्री शर्मा

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || षष्टम पुष्प : सावित्री शर्मा "जी करता है नेह जियें एकाकीपन खलता। कितना कुछ भी करें हमारे संग संग चलता" सावित्री शर्मा गीत विधा की अत्यंत सम्वेदनशील कवयित्री रही हैं।2 अगस्त 1936 को लखनऊ में जन्मी श्रीमती सावित्री जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की एवं भातखण्डे विश्वविद्यालय से संगीत गायन की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की। श्रीमती सावित्री शर्मा जी का पहला काव्य संग्रह 'अक्षरा' नाम से प्रकाशित हुआ।प्रथम काव्य कृति के साथ ही उनका नाम उन कवियों में गिना जाने लगा जिनका काव्य मंचों पर भी स्वागत होता था और उनकी कृतियों के माध्यम से पाठकों और समीक्षकों द्वारा भी उन्हें ख़ूब सराहा जाता। साहित्यिक पत्रिका 'नवनीत'के पूर्व सम्पादक डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी कहते हैं- 'पिछले तीन दशकों में सावित्री जी ने हिन्दी काव्य-उपवन में अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बना लिया है।मंच,रेडियो,दूरदर्शन,पत्र-पत्रिकाओं आदि प्रचार-माध्यमों ने उन्हें मुक्त कंठ से सराहा और श्रोताओं ने मनोमुग्ध भावन

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || पंचम पुष्प : डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी "उम्र है केवल काया की मेरी कोई उम्र नहीं मृत्यु अगर विश्राम है तो आऊँगी दोबारा मैं" 20 फरवरी 2019 को अख़बारों में डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी को विदाई देते हुए उनकी इन्हीं पंक्तियों को हेडलाइन बनाया गया था।वास्तव में ऐसी प्रतिभाएँ अपने कृतित्व से अपनी आयु तय करती हैं इसीलिए उनकी केवल काया निर्जीव होती है कृतित्व अमर। अंग्रेज़ी,हिन्दी, संस्कृत में एम. ए.,एल.एल.बी पी. एच. डी,डी. लिट् डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी का जन्म एक बहुत सुसंस्कृत परिवार में हुआ।विदुषी माँ प्राचार्या डॉ. शारदा पाठक एवं विद्वान पिता आचार्य रमेश वाचस्पति शास्त्री की पुत्री महाश्वेता बचपन से ही मेधावी थीं।2 फरवरी 1954 को इटावा में जन्मीं महाश्वेता जी को विद्यालय जाने से पूर्व ही उनकी माँ ने पंचतंत्र,दशकुमार चरितम, कादम्बरी तथा किरातानुरणीयम के विषय में जानकारी दे दी थी।वैदिक ऋचाओं की अनुगूँज से उनकी सुबह और संध्या खनकती तो सांस्कृतिक कथाओं से दिनांत होता।बचपन से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था और अंत समय तक लिखती रहीं।

|| हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ मधुरिमा सिंह

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  || हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || चतुर्थ पुष्प : डॉ मधुरिमा सिंह शायरी शौक नहीं मेरा अमीरों की तरह मेरे अशआर भी होते हैं फ़कीरों की तरह मैंने माँगा ही नहीं अपने मोहब्बत का सिला वैसे कुछ था तो हथेली में लकीरों की तरह 'खंडित पूजा'संग्रह के फ्लैप पर छपे डॉ मधुरिमा सिंह को लिखे गए एक पत्र में अपना आशीष देते हुए राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं- 'कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थवती तुम्हारी रचनायें झकझोरने वाली हैं।ध्वन्यात्मक!तुम्हें पढ़कर चैतन्य हो उठता हूँ।तुम वेदना में स्वयं समाविष्ट हो जाती हो।परकाया-प्रवेश का लगता है,तुमने मंत्र सिद्ध कर लिया है।' गीत एवं ग़ज़ल की सिद्धस्त हस्ताक्षर डॉ मधुरिमा सिंह 9 मई 1956 में हरदोई में जन्मी। कवयित्री,चित्रकार,संगीत-कला प्रेमी,समाजसेवी और दार्शनिक चिंतक,प्रखर वक्ता जैसे विविध रूपों में उन्होंने अपने जीवन की सार्थकताएँ सिद्ध कीं।काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में उन्होंने डॉक्टरेट की थी।सन 1977 से वे काव्यमंचों से जुड़ गई थीं।विदेशों में भी उन्होंने काव्यपाठ किया।उनकी कविताएँ भी विविध भाषाओं

सहने वाले कमाल करते हैं

  किसी ने हमें उजाला कहा हमें अच्छा लगा।हम दीपक की तरह प्रज्वलित रहना उसके समक्ष ज़रूरी मान लेते हैं । कोई हमें ऊर्जा कह-कह कर अभ्यस्त कर देता है एक नदी सा परिवर्तित होने में ।हम नदी से कल कल बहने लगते हैं,हमारी ऊर्जा भी साझी होने लगती है जल की तरह। हम बिना देरी किये एक घने तरुवर में बदल जाते हैं जब कोई हमें शीतल छाँव सा बताता है।उसके धूप से दुख पर छाँव सा सुख बन कर छा जाने की हमारी जैसे अब ज़िम्मेदारी है। हम रात में भी उजाला चीन्हने की पुरज़ोर कोशिश में लगे रहते हैं जब कोई हमें भोर सा सकारात्मक कह कर परिभाषित करता है। कोई हमें सुगंध कहता है हम ख़ुद को रोक नहीं पाते अपने भीतर के वो सारे पराग कण बटोरने में जो हमें और सुगंधित कर दें। हमें कोमल बताते हुए फूलों की उपमा दी जाती है और दिया जाता है हमें अपनी कोमलता को सिद्ध करने का अपरोक्ष दबाव भी।हम सहने लगते हैं काँटों से कटाक्ष और पीड़ाओं की पैनी हवाएँ क्यों कि हम तो फूल हैं। हमारे व्यक्तित्व के सहज गुण कब हमारे आवश्यक गुण बना दिये जाते हैं हम जान ही नहीं पाते।लोग अपनी रिक्तियों को विभक्त करने के लिए हमें उन से सिक्त कर जाते हैं।ख़ुद को भारहीन क

हिन्दी ग़ज़ल और डॉ. उर्मिलेश (परिचय)

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  ख़ुश हूँ कि आख़िर डेढ़ वर्ष की समवेत मेहनत का परिणाम आ ही गया इस संग्रह के रूप में। और आज के दिन इसकी सूचना मैं इसीलिए भी देना चाहती थी जिस दिन डॉ. उर्मिलेश ने अपने जाने का दिन चुना उसी दिन हमने उन्हें अपने भीतर ज़िंदा रखने को चुना। समकालीन ग़ज़ल के सर्वाधिक सक्रिय-सार्थक ग़ज़लकारों की अग्र पँक्ति में डॉ उर्मिलेश के नाम का उल्लेख किया जाता है।हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा,परम्परा और विकास का अगर अध्ययन करना है तो डॉ उर्मिलेश को पढ़े बिना ये अधूरा रहेगा।इसमें कोई दो राय नहीं हैं।न केवल उनकी ग़ज़लें वरन उनका चिन्तनशील गद्य साहित्य भी हिन्दी ग़ज़ल के प्रति उनकी दृष्टि को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है।इसी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए डॉ उर्मिलेश ग़ज़ल के लिए अनथक श्रम और समर्पण को एक जिल्द में बाँधने का कार्य 'हिन्दी ग़ज़ल और डॉ. उर्मिलेश' के रूप में शीघ्र ही आपके सामने होगा। वरिष्ठ कवि एवं हिन्दी ग़ज़ल के अध्येता आदरणीय हरेराम समीप जी की प्रेरणा और निरन्तर परामर्श से मैं इस संग्रह के सम्पादन का बीड़ा उठा पाई।मुझ पर उनके विश्वास और अपने अभिन्न मित्र उर्मिलेश के द्वारा ग़ज़ल में योगदान के प्रति उनकी निष्ठा