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छठ पर्व पर

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  इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छठ नहीं होती.लेकिन जब से संचार के माध्यम बढ़े तब से त्योहार केवल विशेष क्षेत्र के न हो कर सबके से हो गए.और हम भारत वासी हैं भी तो उत्सव प्रेमी.हर त्योहार मनाना चाहते हैं.हमारे यहाँ मेरा-तुम्हारा नहीं बल्कि एकत्व प्रबल है. अभी घर लौटी तो सबसे पहले टी.वी. खोला.उत्सुक थी अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती हुई स्त्रियों को देखने के लिए.इस समय लंबी माँग भरी,चटक साड़ियाँ पहनी व्रती स्त्रियाँ पूजन सामग्री लिए जल में बस उतर ही रही हैं पूजन के लिए.कितना कठिन व्रत होता है छठ का लेकिन निष्ठा और आस्था के समक्ष सारी कठिनाइयाँ हार जाती हैं. सूर्य को कृतज्ञता ज्ञापित करते,अपने परिवार की सुख समृद्धि की कामना करते जनसैलाब को देख कर मुझे भी पिछले वर्ष इलाहाबाद में बहती संगम की धारा और उसमें झिलमिलाती डूबते सूर्य की किरणों के मद्दम होते हुए वो दृश्य याद आ गए जिन्हें मैंने जी भर जिया था. इस समय भी मेरे पास न बहंगी है,न आसपास नदी,न पोखर, न छठ का परिवेश लेकिन मन है आराधना का. जिसे स्वीकारें सूर्य देवता. आप सबको छठ की शुभकामनाएं.आपके परिवार पर छठी मैया का आशीर्वाद बना रहे. मेरा यदि

ग़ज़ल

ग़ज़ल ल गभग पन्द्रह दिन पहले दिल्ली से वापस लौटते समय FM पर मेरा बहुत ही पसंदीदा गाना 'रोज रोज आंखों तले इक ही सपना पले रात भर काजल जले आँखों में जिस तरह ख़्वाब का दिया जले 'बज रहा था ........ ख़्वाब, रात ,नींद , ख़्वाहिशें,उम्मीदें ये कविता,ग़ज़ल  में सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले लफ़्ज हैं ,ऐसा मुझे लगता है और हो भी क्यों न    ज़िंदगी भी इन्ही   लफ्जों के इर्द गिर्द घूमती रहती है ..... ख़ैर गाना सुनते सुनते इक  दो लाइन मेरे जेहन में भी आयीं 'बंद आँखों से जहाँ मुझको समंदर सा लगा /जागी आँखों से वहां रास्ता बंजर सा लगा  ...........Mobile note book ने इस बार भी ख़ुद पर मेरे ज़ज्बात को लिखने  में और हाँ भूल न जाने में अपनी मदद दी .........आज जैसे तैसे इस   ग़ज़ल को पूरा करने की कोशिश की है .........अब तक कोशिशे ही चल रही हैं क्यों कि लिखने की 'क़ाबिलियत' यकीनन अब भी मुझमे नहीं है ...हाँ मन का कहा मानकर कोशिशें बदस्तूर जारी हैं ...... बंद आँखों से जहाँ मुझको समंदर सा लगा  जागी आँखों से वहाँ रास्ता बंजर  सा लगा  रोज ख़ुशियों की बेहिसाब अर्ज़ियाँ लेकर   अब त