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गज़ल

ग़ज़ल  खुद को कैसे सोचें अब हर लम्हे तुमसे  हों जब हाथ मिलाएं उनसे क्यूँ दिल में शक शुबहे हों जब उस दिन की उम्मीद में हैं सपनीली सुबहे हों जब ख़ुद में यकीं ज़रूरी  है पथरीली राहें हों जब कैसे प्यार के गीत लिखें जीवन में आहें हों जब

आधी दुनिया की कुछ ज़िन्दगियाँ " जिन्हें सब कुछ स्वीकार है "

आधी दुनिया की कुछ ज़िन्दगियाँ " जिन्हें सब कुछ स्वीकार है " 25 नवम्बर को 'International day for the ellemination of violence against women 'से शरू होकर १० दिसंबर 'अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस ' की समाप्ति तक एक बार फिर हम '16 days of activism against gender violence' मना रहे हैं |सपष्ट है आधी दुनिया की कुछ  ज़िन्दगियाँ आज  भी ऐसे किसी भी दिवस के अर्थों से अंजान हैं |उनके लिए १६ दिन क्या १६ सदियाँ भी उनकी अस्तित्व को शून्य से शिखर नहीं दे पायीं |ऐसी ही कुछ ज़िन्दगियों  के नाम ...... कुछ काँच के टुकड़े  हथेली में भीचें हुए हूँ मैं , बचपन से लेकर झुरियों तक  के सफ़र तक  शायद, अब   मेरी लकीरें  कट कट कर जुड़ जाने की मजबूरियों को भी  हौसलों का नाम देकर  खुशफ़हम  सी रहती  हैं |

दृष्टि नहीं है भेद पाने की

सुविधायें भी दुविधायें हैं कभी कभी जब लगता है मेरे पास दृष्टि नहीं है भेद पाने की भौतिक चश्मे को उतार कर देख पाने की   सुख की उन असीमित पराकाष्ठाओं को जिस सुख का पाठ सदियों से महापुरुषों के मुख से होता आया है कभी कभी इनका आवरण उतार कर मिलना चाहती हूँ उस प्रश्न   के उत्तर से जहाँ मैं प्रतिरोध कर पाऊं अपने शारीरिक कष्टों का और प्रेरक बने वो मेहनतकश औरत जिसके लिए सूखी रोटी भी उसके हीमोग्लोबिन का स्तर ऊँचा रखती है  मशीनी सुकून की आदतों को दरकिनार कर छत पर ओस की धागे सी बारीक झिमझिमाहट के नीचे सोऊँ जब तक जागूँ करती रहूँ झंकृत अपनी बातों से चाँद सितार को     चेहरे की रंगत के दब जाने से बेपरवाह धूप से भी कर लूँ दोस्ती जिससे अब तक मेरे घर के अचार,बड़ियों,कपड़ों का ही बेतकल्लुफ़ सा रिश्ता है बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत सारी छोटी-बड़ी इच्छाओं सी पतंगों की दिशाओं का और उड़ानों का प्रारंभ भी मैं और अंत भी मैं ............

टिप

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पश्चिमी उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा ज़िला है बदायूँ |इल्तुतमिश,अमीर खुसरो ,हज़रत निजामुद्दीन, इस्मत चुगताई ,फानी बदायूँनी ,शकील बदायूँनी ,दिजेंद्र नाथ'निर्गुण ',मुंशी कल्याण राय ,पद्म विभूषण उस्ताद गुलाम मुस्तफ़ा खां ,पद्म श्री उस्ताद राशिद खां ,ओज कवि डॉ.ब्रजेन्द्र अवस्थी ,राष्ट्रीय गीतकार डॉ.उर्मिलेश जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों एवं संगीतकारों की जन्मभूमि बदायूँ में मैं भी जन्मी हूँ ,यहाँ  की मिट्टी में ही संगीतिकता,साहित्यकता,सांस्कृति कता की सुगंध मिली हुई है | अँग्रेजशासित समय में निर्मित 'बदायूँ क्लब 'जो कि पहले यहाँ के कलेक्टर 'एलन' के नाम पर 'एलन क्लब' के नाम से जाना जाता था ,बदायूं के इतिहास में बड़ा एतिहासिक महत्व रखता है उसकी महिला विंग की विगत दो वर्षों से मैं सक्रेटरी रही हूँ |बहुत से सांस्कृतिक आयोजन हम समय  -समय पर करते रहे हैं  समय -समय पर क्लब सदस्यों की श्रीमतियाँ एकत्रित  होती हैं 'गेट टुगेदर' के लिए |वहाँ बड़ी खुशमिज़ाजी से एक बारह साल का बच्चा जो कि क्लब के एक employee का बेटा है.....चाय,पानी इत्यादि की service कर देता है
पश्चिमी उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा जिला है बदायूँ | शकील बदायूँनी , फ़ानी बदायूँनी,दिजेंद्र नाथ 'निर्गुण ',मुंशी कल्याण राय पद्म विभूषण उस्ताद गुलाम मुस्तफा खान

सुख की बिछी बिसात हो दीपावली की रात

सुख की बिछी बिसात हो दीपावली की रात हर पल खुशी की रात हो दीपावली की रात दिन भर जो श्रम की धूप में तपते रहे यहाँ उनकी हरेक रात हो दीपावली की रात होली के साथ ईद भी रोशन करे चिराग कुछ ऐसी करामात हो दीपावली की रात

बस द्वारे ही है रौशनी की बारात

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मिट्टी के कुछ ढेले दीयों के आकार में ढल रहे हैं रोशनियों की बारात हमारे द्वारे खड़ी है बहुत उमंगें हैं लक्ष्मी जी की मुँह दिखाई करने की मन में त्योहारी तैयारियाँ थका रही हैं लेकिन थकान को तो जैसे ठंडी होती जा रही रात की नर्म हवा सहलाकर नींद की गोद देकर दूर छिटक कर कहती है अभी कुछ दिन और बाक़ी है उस अमावस की रात को जिस रात दीवाली की फुलझडियाँ छिटकेंगी आंगन में अलसाई हुई अंगडाईयां नहीं नहीं अभी नहीं अभी तो इंतज़ार है रौशनी की बारात का .........

गुंजाइश है क्या ?

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रिश्तों के दफ़्तरों में सुबह से शाम तक की हाजिरी की थकान से पस्त इंसान को घर (ख़ुद )में भी आकर भी सुकून कहाँ, सुकून के लिए किसी को समर्पण और किसी का समर्पण ज़रूरी है और हाजिरी में समर्पण की गुंजाइश है क्या ?

आज रात 'जगजीत' बेफ़िक्र नींद सोये हुए हैं .....

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आज रात 'जगजीत' बेफ़िक्र नींद सोये हुए हैं ...... टी.वी. के सारे न्यूज चैनल बदलते बदलते ,जगजीत जी पर ख़ास पेशकश छानते - छानते रात के दो  बज चुके हैं  और अब क्यों कोई  चैनल जगजीत जी पर कुछ ख़ास पेश करेगा  बस इसी वजह से रिमोट पर मेरी उँगलियाँ उन्ही की तस्वीरें ,उन्ही की ग़ज़लें ढूँढ रही हैं, बेचैन सी  हूँ  उन पर जितना कवरेज देख सकूं देख लूं  ..... नींद ने मुझे आज इजाजत दे दी है कि जाओ जागो अपने जगजीत के साथ .... लेकिन जगजीत जी  के आज बिना धड़कन के सो रहे है बस इसी बात का तसव्वुर ना जाने कितनी देर मुझे और जगाएगा | मेरी प्रेरणा सो चुकी है इससे ज्यादा क्या  कहूँ ? क्यों शिकायत करूँ मैं अपनी आँखों से कि क्यों नहीं झपकती पलकें इतनी रात गए ........... मेरी हर कम्पोज की हुई गजलों में जगजीत जी का अंदाज  शामिल ना हुआ हो ऐसा बहुत कम हुआ और अगर हुआ भी तो वो धुन से  मेरा रिश्ता क़रीबी  नहीं रहा,कई बार सोचा इस बार कुछ संजीदगियाँ और साद्गियाँ कम और सुरों की हरकतें ज्यादा ......लेकिन पहला प्यार तो आख़िर पहला ही होता है और पहला प्यार था जगजीत का अंदाज......और मैं  लौट  फेरकर वहीं  फिर

चलो कुछ यूँ कर लें

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देखो न इस बार मैंने कितनी ख़ुशबुएँ बोई हैं लॉन में तुम भी कभी कभी  रजनीगंधा के फूल बाज़ार से ले आया करो, मुझे फिर से फूलों के प्रिंट की साड़ियाँ सुहाने लगी हैं तुम भी कभी कभी  वो कुछ 'ख़ास' ग़ज़लें गुनगुनाया करो, मैंने अबकी बार   घर की दीवारों को समंदर के रंग सा रंगवाया है तुम भी मेरे साथ तितलियों के रंग से परदे ,हवाओं सी चादरें,चिड़ियों सी चहचहाती पेंटिग्स सजवाया करो, तुम भी जानते हो मैं भी हम अब 'ऑप्टिमिस्टिक'  होना चाहते हैं, उलझनों की गिरफ़्त अहसासों की छुअन तक का गला घोंट देती है, क्यों ना चलो कुछ यूँ कर लें फिर से पिरोयें अहसास कोशिशों के धागे से  

ज़ेब के सूराख

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गरीब की ज़ेब के सूराख से  रेत की तरह   त्यौहार बिना गाये  बजाये बीवी की पांच ग़ज की साड़ी बच्चों की भूख कि निवाले माँ-बाप के दर्द के मरहम बड़ी आसानी से निकल जाते हैं भले ही किस्मत नहीं खुल पाती जिंदगी भर  उसकी पर सूराख हमेशा खुले रहते हैं ....

लहरों... बस कुछ देर और

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   लहरों बस थोड़ी देर और ठहरी रहना मैं वो सब कुछ लिख देना चाहती हूँ जिसे मिटाना चाहती हूँ .... आज हो कल नहीं होगी तुम      मेरे साथ  तब मन को साथ ले लूँगी उस पर लिखूंगी वो बातें जिन्हें मैं लिखना भी चाहती हूँ पर मिटाना भी.....

ओपरा विन्फ्रे

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तुम सहज हो मुखर हो वाकपटुता तुममें लाजवाब कर देने वाली है प्रेजेन्टेवल हो उन्मुक्त हो मधुर हो, तुम्हारे इन स्वभावों के बीजों को पानी देने का काम एक अद्रश्य शक्ति ने किया है| ये वो शक्ति है जिसने प्रताड़ित मर्दित शोषित वंचित 'ओपेरा विन्फ्रे ' को सूत्रधार बनाया है एक ऐसी जिंदगी का जहाँ  उसका बीता हर दर्द वो चीज़ है जिसकी कीमत उसके वर्तमान के सुख से ऊर्जित ज़िन्दगी से आँकी जाती है|     अभी हाल ही में मैंने  'अहा ज़िन्दगी' के अंक में मेरी पसंदीदा शख्सियतों में से एक ओपेरा विन्फ्रे के बारे में पढ़ा| उनके ज़िन्दगी के अंजान सच को जानकर इस जिंदगी के सार को और गहरे से समझ पा रही हूँ कि 'जिंदगी चलती ही जायेगी'...

'आपका साथ' आपके साथ

मेरा स्वर आप तक ..........( मेरी ऑडियो एल्बम 'आपका साथ ' ,मेरे पिता जी डॉ. उर्मिलेश द्वारा रचित कुछ ग़ज़लें )

ये कैसी कशमकश ?

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एक तरफ़ उम्मीद तेरे आने की एक तरफ़ खौफ़ तेरे जाने का इसी कशमकश में उलझती जा रही हूँ मैं जानती हूँ खौफ़ का पलड़ा भारी है उम्मीद से फिर भी न जाने क्यों ...... सच को स्वीकारने में मुझे मेरा अंत नज़र आता है

गज़ल

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उनसे शिकवे कभी गिले ही नहीं हम भी ख़ुद से कभी मिले ही नहीं हमको हालात ने तराशा है ख़ुद की मिट्टी में हम ढले ही नहीं बेसबब जी रहे हैं सपनों को मेरी आँखों में जो पले ही नहीं कैसे उस राह पर तुम्हे भेजें हम भी जिस राह पर चले ही नहीं हमने ख़ुद से वो ही सवाल किये जिसके उत्तर हमें मिले ही नहीं उम्र गुजरी है उनकी यादों में जिनसे मिलने के सिलसिले ही नहीं

मियाद

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तुम इक दिन की मियाद एक महीना एक साल या एक सदी भी कह देते तो मान ही जाती मैं जैसे ये माने बैठी हूँ कि तुम आओगे मुझे खोजते हुए , लेकिन तब जब मुझे खोज लोगे ख़ुद में | मैं हूँ मैं थी मैं रहूँगी यहीं इंतज़ार में | कभी गर्म शाल में लिपटी हुई , कभी पतझड़ में पत्तों सी झड़ती हुई, कभी नई कोपलों सी महकती हुई, कभी गर्म थपेड़ों से लड़ती हुई, कभी बूँद बूँद आसमां सी बरसती हुई ........ सच ये मौसम बड़े प्यारे हैं मुझे शायद ये ही हैं जो जो उस मियाद को छोटा कर देंगे जिसकी मियाद मुझे ही नहीं मालूम ..............

कालीन

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गुनगुनाती हुई महफ़िलें गुनगुनाता हुआ कालीन हर रस रंग से सिक्त कविताओं की बैठकों का श्रोता कालीन मेरे गाँव से चल कर आई धूल से किसकिसाता कालीन शिकवों,ठहाकों,मज़ाकों,पुरानी मस्तियों की याद में रात भर जागी दोस्ती पर मुस्कुराता हुआ कालीन घर भर के मेहमानों को नींद की गोद देता  कालीन  बहुत से हल्दिया सगुनों से छिटकी हल्दी से पीला हुआ कालीन सब कहते हैं पुराना हो गया है सो लपेट कर रख दिया है एक कोने में और उसमें लिपट गयीं हैं महफिलें,चर्चाएँ,बैठकें,गाँव की मिट्टी से सने पैर ,दोस्तों का जमघट ,मेहमानों की फ़ुर्सत,हल्दिया रस्में और भी बहुत कुछ और उनमें शामिल मेरे अपनों के कदम कुछ स्मृतियाँ ऐसी होती हैं जो हमारे वजूद में पूरी तरह जज्ब सी हो जाती हैं और कुछ ऐसी भी जिन्हें कुछ प्रतीक दोहरा देते हैं और फिर एक रील सी चलने लगती है एक के बाद एक  उन स्मृतियों की , जिसमें वो प्रतीक तो  शामिल है ही साथ ही उससे जुड़ी बातें यादें.................

मनन

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काग़ज  को कलम दे दूँ ? चिंतन को मनन दे दूँ ? जीवंत  ख़ुद को कर लूँ शब्दों को कथन दे दूँ ? इन प्रश्नों को सुलझाने के लिए  'लिखना  ज़रूरी है '