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तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई

तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई एक ठहरी झील में हलचल हुई इक नदी पर बाँध-सा बाँधा था मन क्यों मगर ढहने लगा मेरा जतन खोजने पर ये मिला उत्तर मुझे था ये जीवन में तुम्हारा आगमन ख़त्म अब जाकर मेरी अटकल हुई हर नया दिन रेशमी अहसास है अब न कोई भी अधूरी आस है पल हुए जीवन के सारे सरगमी सूनेपन ने ले लिया संन्यास है खुरदुरी थी ज़िन्दगी समतल हुई तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई

जनकवि पंडित भूपराम शर्मा भूप

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सरल-सुशील-शांत-सज्जन-सुकवि श्रेष्ठ, जैसे वह भीतर हैं वैसे ही समक्ष हैं। वाणी के उपासक दिखावे से बहुत दूर, काव्य में नरोत्तम-नरोत्तम से लक्ष हैं।। तन-मन-धन द्वारा जन-चेतना में रत, विरत प्रसिद्धि-सिद्धि की कला में दक्ष हैं। भरथरी -से गायक विराग-राग-नीति के हैं, भूपराम 'भूप' भतरी के कल्पवृक्ष हैं।। ये उद्गार पंडित भूपराम शर्मा भूप के प्रति कवि श्रेष्ठ डॉ ब्रजेन्द्र अवस्थी के हैं। ज़िला बदायूँ के अंतर्गत आने वाले गाँव भतरी गोवर्धनपुर में जन्मे पंडित भूप राम शर्मा भूप को हम जनकवि के रूप में जानते हैं। भूप जी ने अपने आसपास जैसा देखा वैसा गाया। उन्हीं के शब्दों में 'मिल पाया प्यास बुझाने को केवल अपना ही कूप मुझे।' भूप जी ने कभी कॉफ़ी हाउस में बैठ कर कविता के तत्व के लिए संघर्ष नहीं किया। उनकी कविता का कथ्य उनके परिवेश का जीवंत यथार्थ है। ठेठ देहाती भूप जी के पुरखे बड़े प्रसिद्ध राजवैद्य एवं कवि थे। कविता का च्यवनप्राश भूप जी को घुट्टी में मिला। शिक्षा दीक्षा इतनी हुई कि मास्टरी मिल गयी। उस ज़माने में विशारद और संस्कृत की प्रथमा-मध्यमा परीक्षाएँ आज की पी-एच.डी. से कम नहीं मानी

आँखों की मनमानी को ख़ामोश रखा

आँखों की मनमानी को ख़ामोश रखा मैंने बहते पानी को ख़ामोश रखा।  क़िस्मत ने बचपन इतना बदरंग किया, बच्चों ने नादानी को ख़ामोश रखा। रिश्ते के मरते जाने की हद थी ये, बातों ने भी मानी को ख़ामोश रखा दीवारों ने शोर किया वीरानी का, खिड़की ने वीरानी को ख़ामोश रखा। जाने क्या-क्या और देखना बाक़ी था, आँखों ने हैरानी को ख़ामोश रखा।

दादी माँ का जाना अब तुलसी को भी खलता है।

दादी माँ का जाना अब तुलसी को भी खलता है। साँझ हो गयी चौरे पर जब दीप नहीं जलता है।  पूरनमासी एकादश सब याद दिलाये रहतीं हर दिन को जैसे दादी त्यौहार बनाये रहतीं  अब घर का आँगन सुस्ती से आँखों को मलता है।  दोपहरी भर बातों की इक लम्बी रेल चलातीं अपने दौर की सारी बातें  रस लेकर दोहरातीं  अब दिन पहले जैसा लज़्ज़तदार कहाँ ढलता है। मेला, पिक्चर,सजने,धजने की शौकीन बहुत थीं दादी इन्द्रधनुष के रंगों सी रंगीन बहुत थीं  ख़ुश होती हूँ स्मृजब इन तियों का रेला चलता है।