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अक्तूबर, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फीलिंग नॉस्टॅल्जिक

'फीलिंग  नॉस्टॅल्जिक   ’ फेसबुक पर कुछ दोस्त अपने स्टेटस में अक्सर इसे जोड़ कर अपनी यादें पोस्ट करते  है | मुझे दोस्तों की ये यादें,बातें सबसे बहुत सहज और अच्छी लगती हैं | ' नॉस्टेलजिया  '  यानि  ‘बीते वक़्त  की याद’ | स्मरणहीन के अलावा कोई ऐसा नहीं है जो यादें दोहराता न हो,हम अक्सर भूले बिसरे पल दोहराते हैं |फ़िर आज ऐसी कौन सी नई बात मैं लिखने बैठी हूँ यादों के बारे में ? ये मैंने ख़ुद से पूछा | शायद इसीलिए कि मुझे महसूस होता है कि जो हमारा आज है इसे याद करने वाले ज़रूर  होंगे लेकिन ये यादें इतनी पक्की या पुर सुकून न हों जितनी अब हैं या पहले थीं |  मल्टीटास्किंग लोगों की बढ़ती गिनती ,सिर्फ़ ‘मैं और मेरा’ सर्वनाम जानने वाले लोग,ए फॉर एप्पल से पहले एस फॉर सक्सेस के सिखलाने वाले माँ पिता ,ग से ग्लोबलाइजेशन के आगे अपने ग से गाँव अपनी जड़ों को भूल जाने वाले लोग सिर्फ़ हासिल करने की कोशिश में  हैं पा लेने की नहीं | वो ये सब कर पाते हैं तो सिर्फ़ अपने हसरत और मंज़िल पर नज़र रखने के बाद ,कई यादें कई तहों में दबा लेने के बाद | क्यों कि आगे की रौशनी इन रोशनियों को मद्धम कर देने के बाद य

मेरी आई बॉल्स पलकों में क़ैद हैं

तीन दिन बाद घर वापस आई हूँ ,आदतन इन दिनों आये अखबार खंगाले बिना मुझे चैन नहीं आता, ख़ास-ख़ास ख़बरें पढ़ रही हूँ और अब नींद भी आने लगी है | स्पोंडिलाईटिस का दर्द पिछले कुछ दिनों से परेशान कर रहा है, और यूँ ही पढ़ते-पढ़ते अख़बार के दैनिक कॉलम पर मेरी नज़र गयी है पूरे कॉलम में बस यही बात को मैंने ढंग से  और दो बार पढ़ा है जहाँ डॉ.शिंडलर कहते हैं कि ‘डॉक्टर के पास जाने वालों में से ९९ प्रतिशत को कुछ नहीं हुआ होता है वे डॉक्टर के पास इसीलिए जाते हैं उन्हें अपनी भावनाओं को काबू करने की कला नहीं मालूम ,फिर उन्होंने ये भी बताया की बीमार घोषित किये गए लोगों में भी ज़्यादातर इसीलिए बीमार हैं क्योंकि उनके पास सकारात्मक विचार नहीं’ये पैरा को पढ़कर इसमें से मैंने अपने काम लायक सत निकाल लिया ,कि सोनरूपा तुम भी अपनी छोटी-छोटी तकलीफ़ों को नज़रंदाज़ करना सीखो |मैंने लाइट्स ऑफ कर दी हैं |लेकिन लेटते ही कई बातें नींद में ख़लल डाल रही हैं मेरे आई बॉल्स बंद पलकों में क़ैद हैं और आँखें खुलने का इंतज़ार कर रही हैं मुझे एक ही रास्ता सूझ रहा है कि बस लिख डालूँ,२ बज रहे हैं और मैं टाइप कर रही हूँ | १५ तारीख़ को तिहाड़ ज

ज़िन्दगी गोज़ ऑन

रघुपति सहाय 'फ़िराक'कहते हैं कि ‘वजूद में हमेशा बासी होने का ख़तरा रहता है’ और शायरी हमें बासी नहीं होने देती,वो हमें हमारी ज़िन्दगी वापस कर देती है’ | सोचें तो अगर ज़िन्दगी अनिश्चित न होती तो हम कितने निश्चिंत होते और निश्चिंतता भी ज़िन्दगी को बासी कर देती है  | अब यहाँ शायरी और ज़िन्दगी दो अलग अलग बातें हैं,लेकिन समानांतर हैं क्यों कि न जाने कितनी ज़िंदगियाँ शायरी में जी ली जाती हैं |ज़िन्दगी का बयान ही तो होती हैं कवितायेँ ,शायरी| पिछले कुछ दिनों से कुछ शाम छत पर टहलने का सबब हेल्थ के लिए अच्छा होने से इतर बादलों की आकृतियों को निहारना,अँधेरा होते ही कभी-कभी घर के सामने बगीचे में सिर्फ़ जुगुनुओं का झुरमुट देखने को मन होना ,रस्ते चलते बच्चे के सिर पर टीप मारकर उसे चौंक कर मुँह बनाते हुए देखना,दैनिक पूजा अर्चना से अलग बस कुछ देर कृष्ण के नाक नक्श को देखते रहना,कभी यूँ ही मन अपनी कोई पुरानी बनारसी साड़ी ठेठ देसी अंदाज़ में पहनने का बहाना ,पारदर्शी शीशे के वास में पनपे मनी प्लांट की बेल की जड़ इशारे करते हुए दिखाई देना और कहना मजबूत बनी रहना तभी ज़िन्दगी मेरे हरे पत्तों जैसी ख़ूबस

हरा भारत भरा भारत

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हम छोटे -छोटे बच्चे इन छोटे-छोटे पौधों को बड़ा करेंगे ! कन्या पूजन ! #gogreen #greenIndiacleanIndia