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नया साल

 समय और अनुभव समानांतर चलते हैं। दोनों मिलकर जीवन को स्पष्ट करते चलते हैं।इस वर्ष कुछ ज़्यादा स्पष्टतायें महसूस हुईं हमें।जीवन की अनिश्चितता ने वर्तमान को जीना ज़्यादा सिखाया भविष्य को कम।निर्लिप्तता का महत्व समझा है।कविता ने मुझ पर बड़ा परोपकार किया है। थोड़ा और समझा है  क्यों हूँ मैं,क्या हूँ मैं,क्या होना चाहती हूँ मैं। मैंने अपने मन का समय ख़र्च करना सीखा। वहाँ बचाया ख़ुद को जहाँ मेरा जाया होना निश्चित था।रो ली जब रोना आया बिना झेंपे, हँसी भी ऐसे ही।अब और ज़्यादा धैर्य से सुनती हूँ उनको जिनको ज़रूरत है एक भरोसेमंद सुनने और समझने वाले की।कहने भी लगी हूँ वो बातें जो मैं ख़ुद से ज़्यादा करती थी।मैंने उम्र को अपनी चन्चलताओं पर रोक नहीं लगाने दी।गिलहरी बनी रही।अच्छा लगा कि मेरे जैसे कई नए लोग इस साल जुड़े।मैं अपने मत पर और दृढ़ हुई कि स्वयं की स्वीकार्यता ही सर्व स्वीकार्यता की पहली सीढ़ी है। कृतज्ञता का भाव थोड़ा और बढ़ा। मुक्ति और बन्धन के डोर में पड़े झूले में ख़ूब झूली।  ईर्ष्यालु,अहमी,अस्वस्थ आलोचनाकों,असम्वेदनहीनों और ऐसी ही अनेक दुर्भावनाएं रखने वालों को देखकर दुखी हो जाती हूँ, खीझती हूँ सोचती हू

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर

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तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए, छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं. हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं. नई कविता की खुरदुरी बयानगी से उकताए पाठकों के लिए दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों की मशालें एक नया उजाला लेकर आईं।आशावान समाज जब तत्कालीन सत्ता की हिटलरी कार्यशैली से निराश हो कर क़िस्मत की ढहती दीवार पर सिर टिकाये बैठा था उस समय उनकी ग़ज़लें उसके दर्द की सहोदर प्रतीत हुईं। सर्वरूपेण,सर्व संवेद्य,जागरूक और जनमानस के द्वारा सर्वाधिक स्वीकार्य दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के इंकलाबी तेवर जनमानस की आवाज़ बने।अविस्मरणीय ग़ज़लों के प्रणेता दुष्यंत कुमार की आज पुण्यतिथि है। एक बार पुनः उनका लेखन उसी विराटता के साथ सामने उपस्थित हो गया है जैसे तत्कालीन समय में बिगुल की तरह बजा था। प्रणाम उन्हें

अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ

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अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ, कभी ख़ुद से भी मैं निभाने की सोचूँ. मैं ख़ुद तो उसे भूल जाने की सोचूँ, मगर ख़ुद उसे याद आने की सोचूँ. अगर दिल है भारी तो रोकूँ क्यूँ आँसू , ये मोती कहाँ जो बचाने की सोचूँ. यही बेवकूफ़ी तो करती रही हूँ, जो बाक़ी नहीं वो बचाने की सोचूँ. कभी सोचती हूँ जो सब याद रखना, कभी सब वही भूल जाने की सोचूँ. जो अंदर ही अंदर अगर टूट जाऊँ, तो बाहर से ख़ुद को सजाने की सोचूँ. ज़माना तो काटेगा पर,जानती हूँ, मैं पौधे परों के लगाने की सोचूँ. मैं सोयी थी,अब जाग कर कुछ सुकूँ है, सो सोए हुओं को जगाने की सोचूँ. #सोनरूपा #कवि_सम्मेलन #KaviSammelan #ग़ज़ल #Ghazal

अनुपस्थितियों की अनुगूँज

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  पद्मश्री गोपाल दास नीरज,प्रख्यात कवि वीरेंद्र डंगवाल,गीतकार किशन सरोज,डॉ ब्रजेंद्र अवस्थी,डॉ उर्मिलेश,उस्ताद बिस्मिल्लाह खान,बदायूँ के ज़ाफ़र हुसैन कव्वाल सहित डेढ़ सौ दिग्गज कलाकारों की आवाज़ धरोहर के रूप में आकाशवाणी दिल्ली के केंद्रीय संग्रहालय की सेंट्रल आर्काइव की गोल्ड केटेगरी में सदा के लिए संरक्षित कर हम सभी साहित्यप्रेमियों और संगीत प्रेमियों के लिए अनमोल उपहार दिया है। लोक संस्कृति को सहेजने और तमाम विधाओं से जुड़े कलाकारों से लोगों को रूबरू कराने के लिए आकाशवाणी रामपुर समय-समय रिकार्डिंग करता रहा है।2013 में ऑल इंडिया रेडियो ने उन हस्तियों की आवाज़ और कला को धरोहर के तौर पर संजोने का फ़ैसला किया था जो अब इस दुनिया में नहीं हैं।रुहेलखण्ड की ज़िम्मेदारी रामपुर आकाशवाणी को मिली।उसके द्वारा चुने गए इन अनमोल नगीनों की आवाज़ों को केन्द्रीय आकाशवाणी ने दुर्लभ मान कर इन्हें सहेज लिया। सच है,ऐसी अनमोल ज़िन्दगी जीना हर किसी की क़िस्मत में नहीं होता।नमन इन सभी शानदार शख़्सियतों को और बधाई आकाशवाणी को इस बढ़िया कार्य के लिए। #आकाशवाणी #AIR

लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ (डॉ. उर्मिलेश की सुप्रसिद्ध ग़ज़ल)

लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ सुर्खियाँ, हल्दियाँ, स्याहियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ घुट्टियाँ, दुद्धियाँ, गोदियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ घुट्टियाँ, थपकियाँ, लोरियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ उँगलियाँ, बज्जियाँ, टॉफियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ गिनतियाँ, तख्तियाँ, कॉपियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ मेंहदियाँ, रोलियाँ, राखियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ तितलियाँ, हिरनियाँ, मछलियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ शोखियाँ, शेखियाँ, कनखियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ दृष्टियाँ, फ़ब्तियाँ, सीटियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ चिह्ठियाँ, खिड़कियाँ, हिचकियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ आँधियाँ, बदलियाँ, बिजलियाँ- लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ चोलियाँ, चुन्नियाँ, साड़ियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ शादियाँ, डोलियाँ, सिसकियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ बिन्दियाँ, कंघियाँ, चोटियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ रोटियाँ, सब्जियाँ, थालियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ इमलियाँ, मितलियाँ, उल्टियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़कियाँ रानियाँ, बीबियाँ, दासियाँ लड़कियाँ, लड़कियाँ, लड़किय

ताकि जीवन की कलाई पर सुख की मौली बंधी रहे

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 ।🌼।ताकि जीवन की कलाई पर सुख की मौली बंधी रहे।🌼। जो आप से बिछुड़ गए उन्हें हमेशा अपने साथ रखने का तरीक़ा उनकी बातें,यादें दोहरा लेना तो होता ही है और उससे भी अच्छा तरीक़ा होता है उनकी उन बातों को जीवन में उतार लेना जिनसे जीवन की कलाई में सुख की मौली बंधी रहे। कभी-कभी मुझे अपनी दादी की बहुत हुड़क लगती है।उस वक़्त उन्हें याद तो कर ही लेती हूँ  लेकिन कई-कई बार कुछ ऐसा करने की कोशिश करती हूँ जो वो करती थीं।दादी का स्टील के ग्लास में चाय पीना वो भी खोए की वर्फ़ी के साथ ये भी ट्रॉई किया मैंने। इन सब का ज़िक्र तो क्या करूँ लेकिन आज के दिन से जुड़ी हुई एक याद साझा करती हूँ। रोज़ शाम तुलसी जी के चौरे पर दीया जलाना दादी की दिनचर्या का एक हिस्सा था।मैंने भी सोचा कि मैं भी ऐसे ही करूँगी।कई बार दीया जलाना शुरू किया लेकिन फिर भूल गयी।मतलब ये कि नियम नहीं बन पाया कभी। इस बार कार्तिक का महीना शुरू होते ही प्रण कर ही लिया कि अबकी बार कोई दिन मिस नहीं करूँगी पूरे माह दीया जलाऊँगी।दादी की शाबासी जो पानी थी। मैं बहुत ख़ुश हूँ कि इस बार मैंने नियम से पूरे मास तुलसी जी को दीप अर्पित किया।मैं घर पर नहीं थी तो बेटे न

बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये (डॉ. उर्मिलेश)

भूलकर भी न बीती भूल बाँटिये सत्ता हेतु राम न रसूल बाँटिये भारत की धरती न धूल बाँटिये भेदभाव भरे न उसूल बाँटिये एकता की नदी के न कूल बाँटिये प्रेम नाव के ना मस्तूल बाँटिये लाठी-तलवार न त्रिशूल बाँटिये बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये फूल जो हमें नई उमंग देते हैं जिंदगी जीने का नया ढंग देते हैं एकता के विविध प्रसंग देते हैं गंध-मकरंद और रंग देते हैं आजीवन जो हमारे काम आए हैं सारे फूल धरती माता के जाये हैं उन्हें छोड़ व्यर्थ ना बबूल बाँटिये बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये जिन हाथों को देनी थी तुम्हें रोटियां उनमें थमा रहे हो तुम लाठियां सत्ता हेतु तुम्हारी ये ख़ुदगर्ज़ियाँ लोकतंत्र की उड़ा रही है खिल्लियां क्या मिलेगा तुम्हें इस कारोबार में हिंसा बांटते हो बुद्ध के बिहार में शर्म हो तो बुद्ध के उसूल बाँटिये बाँटना ही है तो थोड़े फूल बाँटिये एक ओर खड़े हैं विहिप के त्रिशूल दूजी ओर मिल्लत कौंसिल के त्रिशूल ये न किसी नबी के न शिव के त्रिशूल ये हैं मानवता के क़ातिल के त्रिशूल जबकि हमारी मिसाइल त्रिशूल है ऐसे में त्रिशूल बांटना फिजूल है हो सके तो प्यार के स्कूल बाँटिये बाँटना ही है तो थोड़

प्रेमचन्द 'कल और आज' शब्दिता द्वारा विचार गोष्ठी का आयोजन

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 'ईंट का जवाब चाहें पत्थर हो ,सलाम का जवाब गाली तो नहीं है'। -मुंशी प्रेमचंद हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने सही कहा था कि इतिहास राजा,रानियों,सेनापतियों,शूरवीरों का होता है लेकिन जनता की वेदना साहित्यिक कृतियों में ही वर्णित होती है।मुंशी प्रेमचंद ने उत्तर भारत की जनता की आशा-निराशा,पीड़ा-दोहन,रहन-सहन, मानसिकता सब जैसे जस की तस लिख दी।उनकी कृतियाँ तत्कालीन समाज की प्रामाणिक दस्तावेज़ हैं। ऐसे प्रख्यात उपन्यासकार,कहानीकार प्रेमचन्द की स्मृतियों को दोहराने के लिए साहित्यिक संस्था 'शब्दिता' (बदायूँ ,उत्तर प्रदेश)ने ऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस वार्ता में सभी ने सार्थक परिचर्चा के माध्यम से अपनी अपनी बात रखी। पार्वती आर्य कन्या संस्कृत इंटर कॉलेज की प्रधानाचार्या मधु शर्मा जी ने इस अवसर पर कहा- हिन्दी कहानी के पितामह ने आम आदमी को अपनी रचना का विषय बनाया  है।उनकी ह्रदय की वेदना को कागज पर उतारा है।           टिथौनस इंटरनेशनल स्कूल की संस्थापिका मधु अग्रवाल जी ने कहानी 'ईदगाह'में हामिद का मेले में जाकर अपने लिए कुछ न लाना लेकिन दादी के लिए चिमटा लाना मन द्रवित कर

तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई

तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई एक ठहरी झील में हलचल हुई इक नदी पर बाँध-सा बाँधा था मन क्यों मगर ढहने लगा मेरा जतन खोजने पर ये मिला उत्तर मुझे था ये जीवन में तुम्हारा आगमन ख़त्म अब जाकर मेरी अटकल हुई हर नया दिन रेशमी अहसास है अब न कोई भी अधूरी आस है पल हुए जीवन के सारे सरगमी सूनेपन ने ले लिया संन्यास है खुरदुरी थी ज़िन्दगी समतल हुई तुम मिले तो ज़िन्दगी सन्दल हुई

जनकवि पंडित भूपराम शर्मा भूप

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सरल-सुशील-शांत-सज्जन-सुकवि श्रेष्ठ, जैसे वह भीतर हैं वैसे ही समक्ष हैं। वाणी के उपासक दिखावे से बहुत दूर, काव्य में नरोत्तम-नरोत्तम से लक्ष हैं।। तन-मन-धन द्वारा जन-चेतना में रत, विरत प्रसिद्धि-सिद्धि की कला में दक्ष हैं। भरथरी -से गायक विराग-राग-नीति के हैं, भूपराम 'भूप' भतरी के कल्पवृक्ष हैं।। ये उद्गार पंडित भूपराम शर्मा भूप के प्रति कवि श्रेष्ठ डॉ ब्रजेन्द्र अवस्थी के हैं। ज़िला बदायूँ के अंतर्गत आने वाले गाँव भतरी गोवर्धनपुर में जन्मे पंडित भूप राम शर्मा भूप को हम जनकवि के रूप में जानते हैं। भूप जी ने अपने आसपास जैसा देखा वैसा गाया। उन्हीं के शब्दों में 'मिल पाया प्यास बुझाने को केवल अपना ही कूप मुझे।' भूप जी ने कभी कॉफ़ी हाउस में बैठ कर कविता के तत्व के लिए संघर्ष नहीं किया। उनकी कविता का कथ्य उनके परिवेश का जीवंत यथार्थ है। ठेठ देहाती भूप जी के पुरखे बड़े प्रसिद्ध राजवैद्य एवं कवि थे। कविता का च्यवनप्राश भूप जी को घुट्टी में मिला। शिक्षा दीक्षा इतनी हुई कि मास्टरी मिल गयी। उस ज़माने में विशारद और संस्कृत की प्रथमा-मध्यमा परीक्षाएँ आज की पी-एच.डी. से कम नहीं मानी

आँखों की मनमानी को ख़ामोश रखा

आँखों की मनमानी को ख़ामोश रखा मैंने बहते पानी को ख़ामोश रखा।  क़िस्मत ने बचपन इतना बदरंग किया, बच्चों ने नादानी को ख़ामोश रखा। रिश्ते के मरते जाने की हद थी ये, बातों ने भी मानी को ख़ामोश रखा दीवारों ने शोर किया वीरानी का, खिड़की ने वीरानी को ख़ामोश रखा। जाने क्या-क्या और देखना बाक़ी था, आँखों ने हैरानी को ख़ामोश रखा।

दादी माँ का जाना अब तुलसी को भी खलता है।

दादी माँ का जाना अब तुलसी को भी खलता है। साँझ हो गयी चौरे पर जब दीप नहीं जलता है।  पूरनमासी एकादश सब याद दिलाये रहतीं हर दिन को जैसे दादी त्यौहार बनाये रहतीं  अब घर का आँगन सुस्ती से आँखों को मलता है।  दोपहरी भर बातों की इक लम्बी रेल चलातीं अपने दौर की सारी बातें  रस लेकर दोहरातीं  अब दिन पहले जैसा लज़्ज़तदार कहाँ ढलता है। मेला, पिक्चर,सजने,धजने की शौकीन बहुत थीं दादी इन्द्रधनुष के रंगों सी रंगीन बहुत थीं  ख़ुश होती हूँ स्मृजब इन तियों का रेला चलता है।

रतजगों का हिसाब रहने दो

रतजगों का हिसाब रहने दो कुछ अधूरे से ख़्वाब रहने दो   झील सा दायरे में मत बाँधो कोशिशों को चिनाब रहने दो  सिर्फ़ सूरत का क्या है,कुछ भी नहीं अपनी सीरत गुलाब रहने दो राब्ता कुछ तो तुमसे रखना है तुम वो सारे जवाब रहने दो  चाहती हूँ कि तुमसे कह दूँ मैं तुम मेरा इंतेखाब रहने दो  एक दूजे को पढ़ चुके हैं हम बंद अब ये किताब रहने दो सोनरूपा  चिनाब -नदी का नाम इंतखाब-चुनाव

पूर्णचन्द्र सा प्यार है मेरा, पर जुगनू सा प्यार तुम्हारा

पूर्णचन्द्र सा प्यार है मेरा, पर जुगनू सा प्यार तुम्हारा इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवन गीत हमारा। प्रेम हमारा था इक पौधा हमने मिलकर वृक्ष बनाया लेकिन पतझड़ मेरे हिस्से तुमने केवल चाही छाया   तुम मीठा जल पीने वाले, कैसे पीते पानी खारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  तन होता जब भी एकाकी मन तब पास चला आता है स्मृतियों की गुँथी चोटियाँ खोल खोल कर उलझाता है  तब पढ़ना पड़ता भूला सा, पाठ दुबारा और तिबारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  तुम यदि साधन साध्य समझते हम दोनों अमृत घट भरते इक दूजे को सृजते सृजते अंतर्मन पर सतिये धरते  निष्ठा प्रश्न पूछती तुमने, मुझको शनै: शनै: क्यों हारा। इसीलिए अब तक अनगाया, है ये जीवनगीत हमारा।  दीवारों की दरकन पर मैं कब तक इक तस्वीर सजाऊँ कब तक कड़वे पान के पत्ते पर मिश्री गुलकंद लगाऊँ डूब रही साँसों को देना है, मुझको अब शीघ्र किनारा। इसीलिए अब तक अनगाया है, ये जीवनगीत हमारा

पिता

जीवन से लबरेज़ हिमालय जैसे थे पुरज़ोर पिता मैं उनसे जन्मी नदिया हूँ मेरे दोनों छोर पिता प्रश्नों के हल,ख़ुशियों के पल, सारे घर का सम्बल थे, हर रिश्ते को बाँधने वाली थी इक अनुपम डोर पिता जीवन के सब तौर तरीक़े, जीवन की हर सच्चाई  सिखलाया करते थे हम पर रखकर अपना ज़ोर पिता जब हम बच्चों की नादानी माँ से संभल न पाती थी तब हम पर गरजे बरसे थे बादल से घनघोर पिता रोज़ कई किरदार जिया करते थे पूरी शिद्दत से कभी झील की ख़ामोशी थे कभी सिंधु सा शोर पिता  दिल अम्बर सा, मन सागर सा,क़द काठी थी बरगद सी चाँद से शीतल,तप्त सूर्य थे ईश्वर से चितचोर पिता सब कुछ है जीवन में लेकिन एक तुम्हारे जाने से रात सरीखी ही लगती है मुझको अब हर भोर पिता ।

गीतऋषि बलवीर सिंह 'रंग'

हिंदी गीत को मंच पर प्रतिष्ठित करने में यदि कुछ नाम लिए जाएं तो उनमें श्री बलवीर सिंह 'रंग' का नाम  प्रमुखता से लिया जाता है। गीत में मौलिक चिंतन,ग्राम्य परिवेश,पुरातन में परिष्कृत नवीनता के सारथी,विस्तृत भावभूमि के रचनाकार,हिंदुस्तानी भाषा के पक्षधर,दोनों बाँहों में गीत-ग़ज़ल को थामे रहने वाले बलवीर सिंह 'रंग' के रंग ने हिन्दी साहित्य प्रेमियों को पूरा सराबोर कर दिया है। हिंदी गीत की कोई भी आलोचना और समीक्षा रंग जी के बिना अधूरी है ।आप ये भी कह सकते हैं कि हिन्दी गीत का रंग ही रंग जी के गीतों बिना फ़ीका है। हिन्दी ग़ज़ल का उदगम भी नि:संदेह रंग जी द्वारा हुआ। क्या अद्भुत तौर से उन्होंने हिन्दी के शब्दों को ग़ज़लों में पिरोया।  ज़िला एटा हमारे बदायूँ से बेहद नज़दीक है।वहीं उनका जन्म हुआ। यहाँ एक ज़िक्र मैं करना चाहूँगी कि रंग जी हमारे शहर के ज़िला अस्पताल में इलाज के लिए आये और फिर कई महीनों के लिए यहीं के होकर रह गए। अस्पताल में ही ख़ूब कविताओं की महफ़िल जमती।पिता जी और बदायूँ के सभी साहित्यकार वहाँ रोज़ हाज़िरी लगाते।मैं तो सोच सोच कर ही उस आनंद का अंदाज़ा लगाती हूँ। पिता जी डॉ उर्मिल

मन के काग़ज़ पर इक दुनिया रोज़ बनाती हूँ।

मन के काग़ज़ पर इक दुनिया रोज़ बनाती हूँ। फिर उस दुनिया के मैं क्या क्या ख़्वाब सजाती हूँ ख़्वाब कि 'जिसमें फूलों जैसा दिल रखते हों लोग औरों के सुख दुख को भी अपना कहते हों लोग ख़्वाब कि 'जिसमें दूर ज़हन से नफरत का तम हो हर मौसम बस प्यार प्यार बस प्यार का मौसम हो  इन अभिलाषाओं के दीपक रोज़ जलाती हूँ। ख़्वाब कि 'जिसमें कोई भूखे पेट न सो पाये जीने का अधिकार और सम्मान न खो पाए ख़्वाब कि 'जिसमें स्वर्ग सी धरती की इक आशा हो मेरी दुनिया की भाषा बस प्यार की भाषा हो  सच होंगें मेरे सपने ख़ुद को समझाती हूँ। ख़्वाब कि 'जिसमें नारी को नारी सा मान मिले हर बचपन के चेहरे पर हरदम मुस्कान खिले ख़्वाब कि 'जिसमें हर यौवन सदराह पे चलता हो और बुज़ुर्गों का जीवन मजबूर न दिखता हो ऐसी सुन्दर दुनिया की बुनियाद उठाती हूँ।

मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें

रोक रक्खी भावनाओं को बहा लें मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें  चित्र अनदेखा सा इक उभरा हुआ है रौशनी का हर क़दम ठहरा हुआ है सब हुलासें सब मिठासें गुम गयी हैं मन का चेहरा आजकल उतरा हुआ है  दूधिया एकांत का उबटन लगा लें मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें  ख़ुद को ख़ुद की ग़लतियों पर डाँट लें हम बस हरापन और सूखा छाँट लें हम  अपनी बाँहों में सिमट आने दें ख़ुद को एक दूजे को बराबर बाँट लें हम  अनछुए सपनों की फिर गृहस्थी बसा लें  मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें  डर बहुत पक्का है घर कच्चा अगर है नींद की फसलों पे आँधी का कहर है पार पाना पार जाने से है मुमकिन अन्यथा मुश्किल भरा सारा सफ़र है  पर्वती बेचैनियों को हम ढहा लें मुस्कुरा लें आज या ख़ुद को रुला लें

जब निरन्तर राह पे आगे बढ़ी मैं ज़िन्दगी के रूप को पहचान पाई

आप हस्ताक्षर करें अस्तित्व पर जब क्या स्वयं को मैं तभी स्वीकृत करूँगी  कोटरों की ओट में जीवन न होगा  प्लेट सी गोलाई में नर्तन न होगा मन्ज़िलों का रूप धुँधलाएगा निश्चित स्वप्न की गन्धों का ग़र लेपन न होगा उड़ मैं सकती हूँ अगर पंछी सदृश तो बाँह भर आकाश ही आवृत करूँगी जो अपरिचित था उसे मैं जान पाई अपनी आवाज़ों को अपना मान पाई जब निरन्तर राह पे आगे बढ़ी मैं ज़िन्दगी के रूप को पहचान पाई  आत्मविश्लेषण लिखूँगी जब कभी फिर क्यों किसी की पंक्तियाँ उद्धृत करूँगी  धूप में क्या लकड़ियाँ तापी गयी हैं अपनी ही परछाइयाँ नापी गयी हैं शुभ की निर्मल कामना की भित्तियां क्या निर्जनी दीवार पर थापी गयी हैं ऊसरी धरती पे यदि चलना पड़ा तो स्वयं को जलधार बन कृत कृत करूँगी

होली- एक बार लो फिर से फागुन आया है

मौसम ने सुर साध लिए शहदीले से मन के लक्षण ख़ूब हुए फुर्तीले से मदहोशी के घुल जाने से तन-मन में प्रेम के रस्ते ख़ूब हुए रपटीले से रंग, उमंग, तरंग ने हाथ मिलाया है एक बार लो फिर से फागुन आया है। रिश्तों में मस्ती घुल जाने का मौसम मन से सारे द्वेष मिटाने का मौसम दिल की नगरी में त्योहारी रौनक कर सबसे मिलने और मिलाने का मौसम  होली का त्यौहार ये अवसर लाया है। एक बार लो फिर से फागुन आया है। वृन्दावन की गलियों जैसा है आलम हरपल सजनी के संग है उसका प्रियतम सब पर ही है रंग गुलाबी लाल चढ़ा हर मुखड़ा है मदमाता सा सुन्दरतम  ऐसे पल पाकर हर दिल हरषाया है  एक बार लो फिर से फागुन आया है 

तुम्हारे लम्स की ख़ुश्बू थी, इसमें मुझे ये पैरहन धोना नहीं था

तुम्हारे लम्स की ख़ुश्बू थी इसमें मुझे ये पैरहन धोना नहीं था नैशविल का कवि सम्मेलन था वो, हर जगह लगभग 3 घण्टे के कार्यक्रम के बाद श्रोताओं से इंट्रेक्शन भी ख़ूब होता था।इसी दौरान एक 30 से 35 साल के बीच का एक युगल जो बहुत देर से मुझे देख रहा था,मेरी ओर आया। दोनों पति पत्नी थे ,कानपुर IIT से पढ़ कर अब यहाँ कुछ सालों से अमेरिका में सेटल थे। हेलो मैम... कह कर पत्नी मुझसे बोली कि ...मे आई टच योर हैंड्स। मैंने कहा- श्योर। उन्होंने मेरा हाथ छुआ फिर दोनों हथेलियों से पकड़ कर भावुक होती हुई बोलीं-इस शेर ने मुझे मेरी माँ की याद दिला दी। मैंने कहा- कैसे? वो बोलीं कि मैं एक शहीद की बेटी हूँ।मेरे पापा तब शहीद हो गए जब हम बहुत छोटे थे। मेरी माँ ने पापा के बाद बहुत दुख झेला।पापा के कपड़ों को आज भी माँ जान से ज़्यादा सहेज कर रखे हुए है।वो उनको जीवित मानती हैं।उनकी ख़ुश्बू को महसूस करती हैं।उनका यही विश्वास उनका हौसला है और आज हम यहाँ पर हैं तो उसके पीछे उनकी यही हिम्मत थी।तीन सालों से उनसे मिल नहीं पाई हूँ आज और ज़्यादा याद आ गई उनकी। मैं चुप थी, मेरा ये साधारण शेर किसी को इतना द्रवित कर गया।मैंने जब ये शेर क

यही बस एक गहना चाहिए था

यही बस एक गहना चाहिए था तुम्हारा प्यार पूरा चाहिए था छिड़कना पड़ रहा है इत्र उस पर वो गुल जिसको महकना चाहिए था तुम्हें ही ध्यान में रखता है कोई तुम्हें ये ध्यान रखना चाहिए था मेरी ख़ामोशियाँ समझीं गईं कब मुझे आँखें भिगोना चाहिए था ये मुझसे ज़िन्दगी कहती है अक्सर मुझे अच्छे से जीना चाहिए था भले इक काठ का बिस्तर ही होता मगर बाँहों का तकिया चाहिए था मेरी कश्ती किनारे लग गयी तब उसे जब डूब जाना चाहिए था सितारे कर रहे हैं ख़ुद को रौशन मुझे भी ख़ुद चमकना चाहिए था परखनी है अगर हिम्मत दिए की उसे आँधी में रखना चाहिए था तुम्हें ख़ुद दुख मेरा महसूस होता मुझे चुपचाप रहना चाहिए था