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|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सुमित्रा कुमारी सिन्हा

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  ||हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा|| अष्टम पुष्प:सुमित्रा कुमारी सिन्हा सन 1913 में फ़ैज़ाबाद,उत्तर प्रदेश में जन्मी प्रसिद्ध कवयित्री एवं कहानीकार सुमित्रा कुमारी सिन्हा अपने समय की एक बेहद प्रशंसित,चर्चित एवं उल्लेखनीय नाम रहीं। उन्हें छायावाद और यथार्थवाद के सेतु के रूप में पहचाना जाता है। इन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कवयित्री के रूप में किया था।प्रथम काव्य संकलन 'विहाग' के लिए इन्हें इलाहाबाद में एक प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित किया गया। बाल उपयोगी साहित्य और रेडियो रूपक के क्षेत्र में भी इन्होंने व्यापक लेखन किया।इनके तीन काव्य संग्रह 'विहाग','आशा पर्व','बोलों के देवता' प्रकाशित हैं। आज से इतने वर्ष पूर्व जब स्त्रियों का जीवन अत्यंत विसंगतियों भरा था ऐसे समय में भी उनकी कविताओं में स्वाभिमान एवं अपने अस्तित्व के प्रति सजग रहने वाली स्त्री नज़र आती है। सुमित्रा जी 17 वर्ष की उम्र में विवाह हो गया।पति ज़मीदार परिवार से थे।पति का साहित्यिक और सामाजिक जीवन मे इन्हें ख़ूब सहयोग मिला।सुमित्रा जी तीन बेटों एवं एक बेटी की

जब रिश्ते में साँस नहीं है

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  ||गीत|| जब रिश्ते में साँस नहीं है फिर कैसे स्पंदन होगा। बेल तभी तो पुष्पित होगी जब कोई आलम्बन होगा। जो अनुभूत किया है मैंने उसको तो स्वीकारूँगी मैं जो स्पष्ट नज़र आया है उसको क्यों भ्रम मानूँगी मैं जब सब बादल छँटे हुए हैं क्यों बूँदों का नर्तन होगा। अब जब कोई चाह नहीं है तो आख़िर क्यों राह तकूँ मैं जब निर्णय की छाँह तले हूँ क्यों विचलन की धूप चखूँ मैं इन्हीं कुन्दनी किरणों से मेरे घर में आलेपन होगा। प्रेम बहुत बारीक भाव है प्रेम नहीं स्थूल तत्व है प्रेम अकथ को है सुन लेना प्रेम विरल है,प्रेम सत्व है जो अनुभूत स्वत: करना था उसका भी आवाहन होगा ? आस बाँधने,बाट जोहने का अब कोई अर्थ नहीं है मुझमें अब पीड़ा सहने का चुटकी भर सामर्थ नहीं है मेरे इस स्वाश्रयी मनन का मुझसे ही अभिनंदन होगा। मैं इक पुस्तक नहीं कि जिसको जब मन हो तब पलटा जाये मैं अब वो किरदार नहीं हूँ जो तुमको जी भर दुलराये मुझमें उपजी निस्पृहता में तनिक नहीं परिवर्तन होगा। बेल तभी तो पुष्पित होगी जब कोई आलम्बन होगा। सोनरूपा २९ जुलाई २०२१

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || विद्यापति कोकिल

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सप्तम पुष्प : विद्यापति कोकिल मुझको तेरी अस्ति छू गई है अब न भार से विथकित होती हूँ अब न ताप से विगलित होती हूँ अब न शाप से विचलित होती हूँ जैसे सब स्वीकार बन गया हो। मुझको तेरी अस्ति छू गई है ये समय वो था जब पढ़ने लिखने वाले लोग ही काव्य मंच की शोभा हुआ करते थे।विद्यापति 'कोकिल' जी भी एक ऐसी कवियत्री थीं जिन्हें साहित्य में एक प्रतिष्ठित रचनाकार के रूप में याद किया जाता है।अपने समय की वे बहुत नामचीन कवयित्री मानी जाती थीं।सिद्धि और प्रसिद्धि दोनों उन्हें प्राप्त हुईं। विद्यावती कोकिल जी का जन् ‍ म 26 जुलाई 1914 को मुरादाबाद के हसनपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। गीत की उदात्त लेखिका विद्यावती ‘कोकिल’ के जीवन का अधिकांश समय प्रयागराज में बीता। आर्य समाजी तथा देश-भक्त परिवार में जन्म लेने वाली कोकिल जी का स्वयं भी स्वतंत्रता संग्राम में उल्लेखनीय योगदान रहा।इस दौरान उन्हें कारावास यात्रा भी की।इन्होंने जनहित में अनेक कार्य किये।कोकिल जी का कविता लेखन बचपन में ही प्रारम्भ हो गया था।स्कूल-कॉलेज में आते-आते वो परिपक्व लिख

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सावित्री शर्मा

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || षष्टम पुष्प : सावित्री शर्मा "जी करता है नेह जियें एकाकीपन खलता। कितना कुछ भी करें हमारे संग संग चलता" सावित्री शर्मा गीत विधा की अत्यंत सम्वेदनशील कवयित्री रही हैं।2 अगस्त 1936 को लखनऊ में जन्मी श्रीमती सावित्री जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की एवं भातखण्डे विश्वविद्यालय से संगीत गायन की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की। श्रीमती सावित्री शर्मा जी का पहला काव्य संग्रह 'अक्षरा' नाम से प्रकाशित हुआ।प्रथम काव्य कृति के साथ ही उनका नाम उन कवियों में गिना जाने लगा जिनका काव्य मंचों पर भी स्वागत होता था और उनकी कृतियों के माध्यम से पाठकों और समीक्षकों द्वारा भी उन्हें ख़ूब सराहा जाता। साहित्यिक पत्रिका 'नवनीत'के पूर्व सम्पादक डॉ. गिरिजा शंकर त्रिवेदी कहते हैं- 'पिछले तीन दशकों में सावित्री जी ने हिन्दी काव्य-उपवन में अपने लिए एक विशिष्ट स्थान बना लिया है।मंच,रेडियो,दूरदर्शन,पत्र-पत्रिकाओं आदि प्रचार-माध्यमों ने उन्हें मुक्त कंठ से सराहा और श्रोताओं ने मनोमुग्ध भावन

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी

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  || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || पंचम पुष्प : डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी "उम्र है केवल काया की मेरी कोई उम्र नहीं मृत्यु अगर विश्राम है तो आऊँगी दोबारा मैं" 20 फरवरी 2019 को अख़बारों में डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी को विदाई देते हुए उनकी इन्हीं पंक्तियों को हेडलाइन बनाया गया था।वास्तव में ऐसी प्रतिभाएँ अपने कृतित्व से अपनी आयु तय करती हैं इसीलिए उनकी केवल काया निर्जीव होती है कृतित्व अमर। अंग्रेज़ी,हिन्दी, संस्कृत में एम. ए.,एल.एल.बी पी. एच. डी,डी. लिट् डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी का जन्म एक बहुत सुसंस्कृत परिवार में हुआ।विदुषी माँ प्राचार्या डॉ. शारदा पाठक एवं विद्वान पिता आचार्य रमेश वाचस्पति शास्त्री की पुत्री महाश्वेता बचपन से ही मेधावी थीं।2 फरवरी 1954 को इटावा में जन्मीं महाश्वेता जी को विद्यालय जाने से पूर्व ही उनकी माँ ने पंचतंत्र,दशकुमार चरितम, कादम्बरी तथा किरातानुरणीयम के विषय में जानकारी दे दी थी।वैदिक ऋचाओं की अनुगूँज से उनकी सुबह और संध्या खनकती तो सांस्कृतिक कथाओं से दिनांत होता।बचपन से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था और अंत समय तक लिखती रहीं।

|| हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ मधुरिमा सिंह

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  || हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || चतुर्थ पुष्प : डॉ मधुरिमा सिंह शायरी शौक नहीं मेरा अमीरों की तरह मेरे अशआर भी होते हैं फ़कीरों की तरह मैंने माँगा ही नहीं अपने मोहब्बत का सिला वैसे कुछ था तो हथेली में लकीरों की तरह 'खंडित पूजा'संग्रह के फ्लैप पर छपे डॉ मधुरिमा सिंह को लिखे गए एक पत्र में अपना आशीष देते हुए राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं- 'कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थवती तुम्हारी रचनायें झकझोरने वाली हैं।ध्वन्यात्मक!तुम्हें पढ़कर चैतन्य हो उठता हूँ।तुम वेदना में स्वयं समाविष्ट हो जाती हो।परकाया-प्रवेश का लगता है,तुमने मंत्र सिद्ध कर लिया है।' गीत एवं ग़ज़ल की सिद्धस्त हस्ताक्षर डॉ मधुरिमा सिंह 9 मई 1956 में हरदोई में जन्मी। कवयित्री,चित्रकार,संगीत-कला प्रेमी,समाजसेवी और दार्शनिक चिंतक,प्रखर वक्ता जैसे विविध रूपों में उन्होंने अपने जीवन की सार्थकताएँ सिद्ध कीं।काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में उन्होंने डॉक्टरेट की थी।सन 1977 से वे काव्यमंचों से जुड़ गई थीं।विदेशों में भी उन्होंने काव्यपाठ किया।उनकी कविताएँ भी विविध भाषाओं