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सादगी की उसूल की बातें

मेरे पिता डॉ .उर्मिलेश की ग़ज़ल  का मतला है .... सादगी  की,  उसूल  की   बातें आजकल हैं फ़िज़ूल की   बातें और शायद इसी बात को अनदेखा कर दिया कुछेक उसूलों पर चलने वाले,जिन्हें हम ऊँगलियों पर गिन सकते हैं उनमे से एक आई ए एस 'दुर्गा शक्ति नागपाल' ने,अब वक़्त ही ऐसा हैं कि उसूलों का कोई वजूद ही नहीं।किस्से कहानियाँ में ही सुनिए अब ऐसे चारित्रिक गुण।बावजूद इसके,क्यों कि हैं तो इंसान ही, इसीलिए नकारात्मकता के साथ-साथ आज के समय में भी थोड़ा बहुत सकारात्मक सोचने की भी हिम्मत कर लेते हैं…क्यों कि वक़्त की ज़रुरत भी है हमारी हिम्मत ,एक बात और सोते रहने वाले एक तरह मृत कहलाये जाते हैं और जीते जी खुद को मृत कहलवाना किसे पसंद होगा ? इसीलिए मैंने जिनके शेर से बात शुरू की है तो उन्हीं के चंद  अशआर से दुर्गा के साथ खड़े हुए हाथों में अपना हाथ भी शामिल करती हूँ ……। वजूद अपना ज़रा इस्तेमाल करता चल जवाब खुद ही मिलेंगे सवाल करता चल फिर उसके बाद ज़माने के सह सके पत्थर तू काम ऐसा  कोई बेमिसाल करता चल जो अपनी  बीन पे तुझको नचा रहे हैं यहाँ तू उन सपेरों का जीना मुहाल करता चल ये सारी

ग़ज़ल

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 ख़ुद  को    मत इंसान समझिए  अच्छा है ,हैवान समझिए  चीखें,टीसें,ज़ख़्मी आँखें  शहरों को शमशान समझिए  मौली चूड़ी ,फ़ीकी मेंहदी  टूटे हैं अरमान समझिए  ग़म का चूल्हा ,रोटी उनकी ख़ूनी दस्तरखान समझिए मातमपुर्सी वक़्ती है अब सब हैं बेईमान समझिए  ख़ातिरदारी  थोड़ी   करिये   शातिर हैं मेहमान समझिए रोज़ ब रोज़ मिलेंगे काँटें फूलों की पहचान समझिए रौनक अफज़ा दिखते हैं ,पर भीतर हैं सुनसान समझिए ............................................हालातों का जायज़ा , लफ़्ज़ों की हिदायतें ! .................................................सोनरूपा !!

ग़ज़ल

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रूहानियत में डूब के जब से ग़ज़ल हुई   सच मानियेगा  बाहर में  तब से ग़ज़ल हुई  महफ़िल में रौशनी को नई ज़िन्दगी मिली   इतनी हसीन आपके लब  से ग़ज़ल हुई यूँ तो क़लम संभाले ज़माना गुज़र गया  ये कुछ पता नहीं हमें कब से ग़ज़ल हुई लम्हात ख़ास जब भी इसमें  बयां किए इक हमसफ़र के जैसी तब से ग़ज़ल हुई ढाला है जब से इसमें मैंने तुम्हारा अक्स मेरी नज़र में आला वो सब  से ग़ज़ल हुई मकतब- पाठशाला