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!सौभाग्य के अवसर मिले दो प्राण इक प्रण से मिले!

!सौभाग्य के अवसर मिले दो प्राण इक प्रण से मिले! मैंने कल अपना ये पहला गीत लिखा है अब तक बस कुछ अतुकांत कवितायेँ ,मुक्तक और ग़ज़ल लिखने की ही कोशिश की है ,कल पापा के गुरुप्रवर और सौभाग्य से मेरे भी गुरु जी के  विवाह की स्वर्ण जयंती है ......मुझे उन्होंने फोन किया और कहा कि बेटा तुम सब को आना है और पापा को याद करते हुए बोले आज अगर उर्मिलेश  होते तो हमें अपने शब्दों का उपहार ज़रूर देते,ना जाने उत्सव को कितना सुंदर बना देते | उनके इन्ही शब्दों को सुनकर मैंने सोचा शायद मैं कुछ लिख सकूँ उनके लिए .......कल ये गीत मैं उन्हें सस्वर सुनाऊँगी ........पापा के जैसा तो कभी नहीं लिख सकती लेकिन हाँ बहुत मन से लिखा है| सौभाग्य के उपवन खिले  दो प्राण इक प्रण से मिले  नव अंकुरण से वृक्ष तक  जीवन के कटु मधु सत्य तक  संकल्प पथ से ना हिले  दो प्राण इक प्रण से मिले हो प्रेम का तरुवर घना सानंद हों दोनों मना जारी रहें ये सिलसिले दो प्राण इक प्रण से मिले  गंगा की अविरल धार सा  वीणा के झंकृत तार सा  संगीत पुष्पित हो खिले  दो प्राण इक प्रण से मिले  दिनकर स

शुभकामनाएँ

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! दीप पर्व की आप सभी को बहुत सारी शुभकामनाएँ ! दीप की पंक्तियाँ जगमगाएँ प्रीति की सूक्तियाँ गुनगुनाएँ पर्व दीपों का लाए सुमंगल  आप सबको ये शुभकामनाएँ

असमंजस

क्या लिखूँ ? अ भी हाल ही में कई मौकों पर ब्लॉग और फेसबुक कुछ पोस्ट करते हुए हाथ रुक गए, हुआ यूँ कि पिछले कुछ दिनों पहले अपने देश में ‘खेल दिवस’ मनाया गया तो सोचा कि कुछ इससे रिलेटेड पोस्ट किया जाये लेकिन पोस्ट करती इससे पहले ही ‘हिन्दुस्तान’ अखवार में एक आर्टिकल पढ़ने को मिला जिसका टाइटल था ‘चीन कैसे बना खेलों में सुपर पॉवर’ ...चीन में आज कल एक स्लोगन 'च्च्वी क्व्थी च’ बड़ा प्रसिद्ध है ,इसका मतलब है –खेलों में पूरी शक्ति लगा देना|सरकार और खेल विभाग पूरी तरह इस पर अमल करते हैं विश्व स्तरीय एथलीट बनाने की प्रक्रिया बचपन से ही शुरू हो जाती है किंडरगार्टन से ही प्रतिभावान बच्चों को चुन लिया जाता है और उसका रिज़ल्ट तो हम देख ही  रहे हैं कि लन्दन ओलंपिक में ३८ पदक जीत कर वो अमेरिका से पीछे था ऐसा ही बहुत कुछ जान लेने के बाद  तो एक वारगी लगा कि अपने मित्रों को खेल दिवस की शुभकामना देकर क्यों औपचारिकता निभाई जाये जब कि हम जानते हैं हमारे यहाँ खेल और खिलाड़ी मुश्किलों से  सरवाइव कर पा रहे हैं ........ फिर कुछ दिन से बड़ा शोर हो रहा है ‘सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कितनी

ग़ज़ल

ग़ज़ल  काग़ज पे घर बहुत से बनाये गए हैं आज   बेघर को सब्ज़  बाग़ दिखाए  गए हैं आज  अख़बार की कतरन में चमकने के वास्ते  बेबात के भी जश्न मनाये गये हैं आज  मायूसियाँ कहीं इन्हें वीरान न कर जाएँ  कुछ हसरतों के मेले लगाये गये हैं आज  हर रात पूछता है बिस्तर मेरा मुझसे  आँखों में कितने ख़्वाब सजाये गये हैं आज 

सूना सूना है सावन तुम्हारे बिना

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ये अंश हैं मेरे पिता डॉ.उर्मिलेश के १९९४ में प्रकाशित पहले संग्रह ‘धुँआ चीरते हुए’में से जिसमें  वे अपनी सृजन यात्रा के कुछ पल याद करते हुए लिखते हैं  “मैंने पहली ग़ज़ल अगस्त १९७१ में हिंदी के मौलिक ग़ज़ल कार स्व.बलवीर सिंह रंग की ग़ज़ल ‘सूनी सूनी है होली तुम्हारे बिना /जिंदगी है ठिठोली तुम्हारे बिना ‘ से प्रभावित होकर लिखी थी (तब ग़ज़ल कहता था लिखता नहीं था ) मेरी पहली ग़ज़ल थी ‘ सूना सूना है सावन तुम्हारे बिना , अब ना लगता कहीं मन तुम्हारे बिना /मंदिरों में गया तो यही स्वर सुना , व्यर्थ जायेगा पूजन तुम्हारे बिना |उस   ग़ज़ल में नौ शेर थे सबमे हिंदी के तत्सम शब्दों का प्रयोग था | मेरी ग़ज़लों अगस्त ७१ से सन ७५ तक की ग़ज़लों में हिंदी के तत्सम शब्दों का आग्रह कुछ अधिक ही रहा |बाद की ग़ज़ल परिवेशगत यथार्थ को उद्घाटित करने वाली थीं उनकी भाषा ,बोलचाल की भाषा के बहुत नज़दीक होती गयी यह सब सायास नहीं हुआ | अत्यंत सहज और अनारोपित ढंग से यह बदलाब आता गया | सोच और भाषा दोनों ही स्तर मैंने बदलाब को आने दिया ,इसे बाधित नहीं होने दिया” “..........................................

शुभकामनायें

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स्वतंत्रता दिवस की आप सभी को  बहुत बहुत शुभकामनायें  भारत के अंग्रेजों से स्वतन्त्र होने की ६५ वीं वर्षगाँठ पर सब भारतवासियों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें ............... शीघ्र ही हम स्वयं भी तंत्र के साथ "स्व -तंत्र 'होने की वर्षगाँठ मनाएँ ........... ~ हिंद जय भारत ~

दहकता हुआ दरिया

दहकता हुआ दरिया  केसरिया हिंदुत्व का हरा रंग इस्लाम का रंगों का धर्मों पर हुये दोबारा नामकरण के लिए /नई पहचान के लिए काफ़ी हुए दंगे और थोड़े बहुत भाषण राम रहीम जैसे नाम होते होंगे आराध्य आस्थाओं के पर हॉट टॉपिक भी हैं फ़सादों के लिए सावन ,रमजान ,ईद ,दिवाली जैसे पाक दिन और महीने मौकापरस्ती के हिंसक तीर दागने वालों के लिए साल भर के सबसे बढ़िया दिन   वो कुछ लोग जिन्होंने दंगाई बलवाई उपद्रवी खुदगर्ज जैसे नामों का पेटेन्ट खुद के लिए करा लिया है ये जो चलते फिरते हरदम सक्रिय डायनामाइट्स हैं उनकी डिक्शनरी में ‘इंसानियत’ लफ़्ज को अंडरलाइन किया गया है नोंचने खसोटने के लिए ............ और वो होती रही है रोज   घायल  हर काल खंड में .... ( मेरा पड़ोसी जिला ‘बरेली’ पिछले दो हफ़्ते से मजहबी दंगों से घायल है , कल श्रावणमास का अंतिम सोमवार है जहाँ रमजान और सावन मास जैसे पाक महीने ईश्वरीय आराधन के लिए हैं, वहीँ यहाँ के वाशिंदे कल के दिन के लिए आशंकित ज्यादा हैं और दुआ कर रहे हैं कि अमन चैन बना रहे ) 

उन दिनों

मेरी पसंदीदा पेंटिग कलाकार 'वर्तन आर्ट ' उन दिनों  उन दिनों चाँद भी हथेलियों पर उतर आता था उन दिनों हथेलियाँ ख़ुशबुओं से महकती थीं उन दिनों हथेलियाँ बस दुआओं के लिए उठती थीं उन दिनों हथेलियों की नावों में  रंग बिरंगी तितलियाँ सवार रहती थीं उन दिनों हथेलियों के उठान प्रेम के आवेग थे आसमान पर उमड़े बादलों की तरह उन दिनों हथेलियों की रेखाएँ भी ईश्वरीय मिलन के रास्ते थे ये जादू था चार हथेलियों का जिसने हथेलियों पर प्रेम की फसल उगा ली थी ये जादू था चार हथेलियों का जिसने समूची धरती को ख़ुद पर पनाह दे दी थी जैसे जादू चल नहीं पाता बिना जादुई ताकत के वैसे थम गया था चार हथेलियों का जादू दो के होते ही अब हथेलियाँ बदन का हिस्सा भर थीं बस ! 

दोष किसका मेरा या तुम्हारा ?

दोष किसका मेरा या तुम्हारा ? ब हुत थके से ,उनीदे से लग रहे हो तुम  कुछ शिकायती से भी , माँओं की लोरियां भी आपने लाडलों को नींद का बिस्तर दे चुकी हैं चौपालों के हुक्कों की गुडगुडाहट भी चुप है चूल्हों की राख भी ठंडी हो चुकी है अब  गाँव से चलें शहरों की ओर  तो  रौशनी से जगमगाते टॉवर रात गए इठला रहे हैं अपने उजालों पर     सड़कों पर भी गिनी चुनी सी रफ्तारों का शोर है बस जारी है तो रोशनियों की चहलक़दमी   श sssssssssssssssssssssssss 'एक नींद की जागीर  सब लूटने चले हैं सोकर ' और तुम हो कि मेरे ख़्वाबों में चहलकदमी कर रहे हो   फिर  क्यों न होगी थकन ,उनींदे दिन ,उबासी साँसे अब बताओ  दोष किसका मेरा या तुम्हारा ?  

शब्द समर्पण

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शब्द समर्पण   एक महीने पहले फेसबुक पर  ख़ुद को एक और नए ग्रुप में जुड़ा हुआ पाया .....नाम था 'फरगुदिया ...स्त्री के अंतर्मन में उठे प्रश्न और समाधान ' नाम थोड़ा अलग सा था .....मैंने ग्रुप का पेज ओपन किया फिर उसके बनाये जाने के मकसद पर मेरा ध्यान गया  .......मुझे पता चला कि ये ग्रुप दिल्ली की रहने वाली एक होम मेकर जिनका नाम 'शोभा मिश्रा 'है , उनका है जिन्होंने अपनी बचपन की मित्र जिसका नाम 'फरगुदिया 'था उसकी याद में बनाया है...... मात्र १४ वर्ष की उम्र की थी फरगुदिया जब वह किसी की दरिंदगी का शिकार हुई और जब गरीब, बेसहारा और एक गाँव में घरों में काम-काज कर अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाली उसकी माँ ने उसका गर्भपात करवाया तो उसकी मौत हो गई............. संवेदनाओं को समर्पित इस ग्रुप से और शोभा दीदी से लगाव कुछ बढ़ गया था ...फोन से भी बातचीत होने लगी इस बीच एक कर्यक्रम के लिए उनका फोन मेरे पास आया ...उनका मन था कि  उसी फरगुदिया और उसकी जैसी हज़ारों-लाखों-करोड़ो ं फरगुदियाओं की याद में एक शाम रखी जाये  जिसमें कुछ कवयित्रियाँ इस तरह की कुकृत्यों के विरोध

कुछ यादें आपके साथ ..........

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आज पापा की सातवीं पुण्यतिथि है ना जाने कितनी बार सोचा कि ये दिन अगर कलेंडर से मिट जाये तो कितना अच्छा हो या क्यों ना वो पल जब उनकी साँसें थमी थी वो पल वक़्त की अल्मारिओं में रखे हुए पलों के हिसाब से मिट जाये ......जानती हूँ ऐसा कभी भी नहीं होगा ...............इसीलिए ये बचपना भी  दोहराना  छोड़ दिया है |  हम जल्दी ही उनके नाम का एक पेज बना रहे हैं ' डॉ-उर्मिलेश ' .....जिसमें हम उनके कुछ वीडियोज,फोटोस ,कवितायेँ ,संस्मरण ताजा करेंगे ......हालाँकिहम कुछ ही वीडियोज एकत्र कर पायें हैं फिर भी कोशिश रहेगी कि उनसे जुड़े हर छुए अनछुए पहलुओं से हम आपको मिलवा सकें ,और जल्दी ही उनकी बेबसाइट भी आपके सामने होगी ...... पिछले एक दशक से जिस तरह तकनीक के द्वारा ,सोशल साइट्स के द्वारा  लेखकों और कवियों का पाठकों से सीधा साक्षात्कार होता दिखता है उसे देख कर मेरा भी मन होता है कि हम  भी पापा के कृतित्व और व्यक्तिव को आने वाली पीढ़ी तक ले के जायें ... मैं जानती हूँ कि उनको सुनने वाले श्रोता,उनको पढ़ने वाले उनके पाठक लाखों में हैं फिर भी ये साहित्यिक सिलसिला यहाँ भी जारी रहे ऐसी कामना है  ......

सत्यमेव जयते

आज आमिर खान का बहुप्रचारित   एवं बहुप्रतीक्षित शो  ‘ सत्यमेव जयते ’  एयर हो गया, नाम से ही जाहिर है कि जैसा भी होगा समाज के लिए एक और नई दिशा से जोड़ेगा ......आज सुबह से कुछ मन अनमना सा था ,कभी-कभी सब कुछ सामान्य होते हुए भी ना जाने क्यों उदासीनता घर सी कर जाती है ......फिर भी ११ बजते ही मैं टी.वी. सेट के सामने बैठ गयी |आमिर खान का पहला शो एयर होने वाला था ..उनसे एक आम और ख़ास दोनों ही तरह के दर्शकों को एक ख़ास उम्मीद तो रहती ही है ,पहला एपिसोड ‘कन्या भ्रूण हत्या’ पर आधारित था और एपिसोड पर आने वाली महिलाएं,जिन्हें ना जाने कितनी भयानक यातनाओं से गुजरना पड़ा क्यों कि उन्होंने लड़की जन्मी थी या जन्मने वाली थीं .....गरीब तबके से लेकर पढ़े लिखे तबके से बुलाई गयीं भुक्तभोगी महिलाओं की दर्दनाक दास्तान सुनकर अभी भी मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं , ये शो पूरी तरह से अप टू द मार्क है पहले समस्या,फिर कारण,फिर निराकरण भी | ऐसी ही दर्दनाक दास्तानों से हम सब भी रोज रूबरू होते हैं, सुबह आँख खुलते ही अख़बार दस्तक देता है अपनी ५ परसेंट अच्छी ख़बरें एवं ९९ परसेंट ऐसी ही दर्दनाक दास्तान लेकर और हम चे

ग़ज़ल

ग़ज़ल ल गभग पन्द्रह दिन पहले दिल्ली से वापस लौटते समय FM पर मेरा बहुत ही पसंदीदा गाना 'रोज रोज आंखों तले इक ही सपना पले रात भर काजल जले आँखों में जिस तरह ख़्वाब का दिया जले 'बज रहा था ........ ख़्वाब, रात ,नींद , ख़्वाहिशें,उम्मीदें ये कविता,ग़ज़ल  में सबसे ज्यादा लिखे जाने वाले लफ़्ज हैं ,ऐसा मुझे लगता है और हो भी क्यों न    ज़िंदगी भी इन्ही   लफ्जों के इर्द गिर्द घूमती रहती है ..... ख़ैर गाना सुनते सुनते इक  दो लाइन मेरे जेहन में भी आयीं 'बंद आँखों से जहाँ मुझको समंदर सा लगा /जागी आँखों से वहां रास्ता बंजर सा लगा  ...........Mobile note book ने इस बार भी ख़ुद पर मेरे ज़ज्बात को लिखने  में और हाँ भूल न जाने में अपनी मदद दी .........आज जैसे तैसे इस   ग़ज़ल को पूरा करने की कोशिश की है .........अब तक कोशिशे ही चल रही हैं क्यों कि लिखने की 'क़ाबिलियत' यकीनन अब भी मुझमे नहीं है ...हाँ मन का कहा मानकर कोशिशें बदस्तूर जारी हैं ...... बंद आँखों से जहाँ मुझको समंदर सा लगा  जागी आँखों से वहाँ रास्ता बंजर  सा लगा  रोज ख़ुशियों की बेहिसाब अर्ज़ियाँ लेकर   अब त

ग़ज़ल

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ज़िन्दगी तुझको बसर कुछ इस तरह करते रहे  रात दिन दुश्मन से जैसे हम सुलह करते रहे  आईना चुपचाप अपना फैसला करता रहा हम वकीलों की तरह खुद से जिरह करते रहे इस तकलुफ्फ़ की वजह भी कोई तो होगी ज़रूर याद वो आख़िर हमें क्यों बेवजह करते रहे शाम होते ही उसे सबने भुला डाला यहाँ वो जो सूरज की तरह घर घर सुबह करते रहे जब तलक वो जिंदगी की जंग में शामिल रहा मोर्चे दुश्वार थे लेकिन फ़तह करते रहे .....डॉ.उर्मिलेश 

ग़ज़ल

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मेरी लिखी हुई गिनी चुनी  ग़ज़लों में से एक  ग़ज़ल हाल में  ही आम आदमी के सरोकारों को अपनी कलम से आवाज देने वाले शायर 'अदम गोंडवी ' के निधन के पश्चात फिर से वही सरकारी मदद और पुरस्कारों की घोषणाओं का नाटकीय शोर सुनाई  देने लगा .......... ठीक ऐसे ही कालजयी उपन्यास '  राग दरवारी' के रचनाकार श्री लाल शुक्ल को एक प्रतिष्ठित पुरस्कार तब दिया गया जब उनके लिए पुरस्कार के कोई मायने ही नहीं थे ............. ऐसे ही ना जाने कितने सम्मानित विभूतियों  को ऐसी स्तिथि में सम्मान की औपचरिकता के निर्वहन का एक हिस्सा तब बनाया जाता है जब उनकी उम्र अपना पड़ाव तय कर चुकी होती है ...........  आखिर जीवन के अंतिम पलों  में या मृत्यु उपरांत दिए जाने वाले पुरस्कारों का क्या औचित्य है ?ये  प्रश्न हम आम जन के दिमाग में ना जाने कितनी बार कौंधता है जब न्यूज पेपर ,समाचार हमें बताते हैं कि अमुक सम्मान अमुक को ....... माना कि कलाकार या साहित्यकार के सृजन को पुरस्कारों की दरकार नहीं होती फिर भी कला का सम्मान करना यानि अपनी संस्कृति का सम्मान करना है फिर वो सम्मान उस समय क्यों नहीं जब कलाका