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फोन मेमोरी को फुल दिखला रहा है

फोन मेमोरी को फुल दिखला रहा ह है मिटाने को बहुत बतला रहा है सुख के दुख के अनगिनत हिस्से हैं इसमें ज़िन्दगी के मुख़्तसर क़िस्से हैं इसमें  मत समेटो ज़िन्दगी सिखला रहा है रात दिन इसमें उलझते जा रहे हैं मुठ्ठियों से पल फिसलते जा रहे हैं क़ैद में कर के हमें इठला रहा है है किसे फ़ुरसत जो देखेगा पुराना हर नए दिन कुछ नया गढ़ता ज़माना जो जियो उस पल जियो जतला रहा है सेल्फियाँ एडिट बहुत सी कर चुके  हम रंग इनमें ख़ूब सारे भर चुके हम जो हैं वो रहने को मन अकुला रहा है
कल फेसबुक पर कवि सम्मेलन के वर्तमान परिदृश्य को लेकर बड़ी ज़रूरी चर्चा पढ़ी!इस पोस्ट का मन्तव्य था जो मुझे लगा कि साहित्य का दूसरा खेमा मंचीय कविता को  नकारता है और उसका कारण कवि सम्मेलनों में बढ़ती स्तरहीनता है लेकिन सारे मंच और सारे कवि ऐसे नहीं तो सब को एक ही तौर से देखना ज्यादती है! मेरा भी यही मानना है कि हर मंच इस तरह की वृत्तियों से दूषित हो ऐसा नहीं है !आज भी बहुत से ऐसे मंच हैं जहाँ कविता अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में विराजित होती है! अभी दो तीन महीने पहले मेरा एक लंबा आलेख  भोपाल से प्रकाशित पत्रिका 'गीत गागर' में आया था!'आज के कवि सम्मेलन बहस और विमर्श की ज़रूरत'!अगले अंक में चिट्ठी पत्री वाले स्तम्भ में आलेख की सराहना पढ़ने को मिली,पाठकों के फोन कॉल्स भी आये! फेसबुक पर पत्रिकाओं में छपने की ख़बरें कम ही शेयर करती हूँ इसीलिए ये भी नहीं की !लेकिन इस आलेख को शेयर न करने का एक कारण ये भी था कि निश्चित तौर पर मैं इस आलेख के कुछ अंश डालती,अपने विचार रखती और मुझे यक़ीनन यहाँ भी समर्थन मिलता, लेकिन इससे हासिल क्या होता? क्यों कि जब तक ऐसे लेख,चर्चाओं,बहस में रखे गए विच

कक्षा पाँच में पढ़ने वाली तब मैं थी इक गुड़िया

अक्सर ही मैं दोहराती हूँ एक ज़रूरी बात बचपन में पापा ने बोये जो मुझमें जज़्बात कक्षा पाँच में पढ़ने वाली तब मैं थी इक गुड़िया पापा मुझको कहते थे जादू वाली इक पुड़िया  एक बार ये गुड़िया बोली पापा से ये जाकर पापा सुन्दर सा इक चित्र मुझे देदो बनवाकर! मुझको अपने विद्यालय में प्रथम जगह है पाना मैं कितनी हुश्यार हूँ बच्ची सबको है बतलाना पापा ने कुछ रंग और काग़ज़ मुझसे मंगवाए रबर,पेन्सिल,पैमाना भी संग उसके रखवाये थोड़ी देर में पापा ने इक सादा चित्र बनाया मैंने जब देखा तो मुझको तनिक नहीं वो भाया जलती हुई मोमबत्ती जो संख्या में थीं तीन जिन्हें देख ये मीठी गुड़िया हो बैठी  नमकीन  पहली मोम बत्ती पर लिक्खा 'सबसे पहले देश' दूजी पर 'माँ' तीजी पर 'बाक़ी सब'का  संदेश पापा ने कितनी सुन्दर सी बात मुझे सिखलाई मैंने विद्यालय में सबसे ख़ूब प्रशंसा पाई यही ज़रूरी बात आज मैं सबको बतलाती हूँ सबसे पहले देश प्रेम है सबको जतलाती हूँ फिर मैंने अपनी माँ को सबसे ऊपर जाना है ख़ुद को यदि पँछी माना तो उसको पर माना है उसके बाद मिला जो कुछ भी उसे सहज स्वीकारा पापा की शिक्षा को पूरे मन से यूँ सत्कारा!  

अपने वुजूद पे ग़ुरूर कीजिये

मेरा ये ख़त घरेलू स्त्रियों के नाम!थोड़ा सा वक़्त निकाल लीजियेगा इसके लिए! मेरी प्यारी सहेलियों, बहुत दिनों से कुछ बताना चाहती थी या शायद कहना चाहती थी तुम सब से !  मैंने अपने घर के अंदर बहुत से प्लांट्स लगा रखें हैं!ज़्यादातर ऐसे हैं जो पानी में भी ख़ूब पनपते हैं !कहीं- कहीं मैंने घर के कोने को एक गाँव सा रूप दे दिया है और वहाँ कुछ इनडोर प्लांट्स रख दिए हैं!कहीं गैस की चिमनी के कोने में छोटे छोटे मिट्टी के,पॉटरी के बर्तनों में पौधे पनपा दिए हैं! मुझे कई बार ऐसा लगा है दरअसल ये हुआ भी है कि मैं दो-तीन दिन के लिए बाहर गयी और लौट कर आई तो देखा मेरे इन प्लांट्स में से कई के पत्ते पीले हो गए हैं जबकि मेरे पीछे इनकी देखभाल में कोई कसर नहीं रहती! तब कई बार मैं सोचती हूँ क्या ये मेरे बिना अकेले हो जाते हैं इसीलिए मुरझा जाते हैं ? मैं इनके पीले पत्ते अलग करती हूँ और इन्हें फिर से हरा भरा बना देती हूँ! तुम सोचोगी ये भी कोई बात हुई,पौधे हैं मुरझायेंगे ही तुम्हारी याद थोड़ी करेंगे! लेकिन तुम्हें पता है मैं अपनी इस सोच से ख़ूब ख़ुश होती हूँ और संतुष्ट भी वो इसीलिए कि मुझे ऐसा लगता है कि मैं
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'यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है कई झूठे इकठ्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है ' एक पत्रिका के लिए नामवर शायर 'हसीब सोज़'जी के ग़ज़ल संग्रह 'अपनी ज़मीन से' का मजमून(समीक्षा) लिखने का अवसर मिला!यहाँ भी शेयर कर रही हूँ! !! हिंदुस्तानी ज़बान के शायर : हसीब सोज़!! साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो उसने अपने समय की ज़िन्दगी को अपने-अपने तौर पर पेश किया है ! ज़माने के रंग ,तौर तरीक़े ,विसंगतियाँ ,दिल के जज़्बात की सटीक अभिव्यक्ति है हसीब सोज़ साहब की शायरी ! आत्मचिंतन और ख़ुद से मुठभेड़ के बाद उनकी कलम से निसृत शायरी वो वितान रचती है कि महसूस हो हाँ,यहाँ तो हमारे मन बात है ! एक कलमकार का सबसे बड़ा हासिल ये होता है कि वो अपनी शिनाख़्त हासिल कर ले !सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल साइट्स पर ग़ज़लें   पढ़कर कभी-कभी इक शाइर का ये मिसरा मन में कौंधता है- ’कब तलक सुनते रहें हम एक जैसी गुफ़्तगू’  लेकिन अगर हसीब सोज़ जी को पढ़ा जाए तो आप उनके संग्रह ‘अपनी ज़मीन से’ की पहली ग़ज़ल से लेकर आख़िरी ग़ज़ल तक बस हसीब सोज़ को ही पायेंगे किसी और का ध्यान भी आपके ज़ेहन के आसपास से नहीं गुजरेगा ! संग्रह क