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फ़रवरी, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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'यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है कई झूठे इकठ्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है ' एक पत्रिका के लिए नामवर शायर 'हसीब सोज़'जी के ग़ज़ल संग्रह 'अपनी ज़मीन से' का मजमून(समीक्षा) लिखने का अवसर मिला!यहाँ भी शेयर कर रही हूँ! !! हिंदुस्तानी ज़बान के शायर : हसीब सोज़!! साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो उसने अपने समय की ज़िन्दगी को अपने-अपने तौर पर पेश किया है ! ज़माने के रंग ,तौर तरीक़े ,विसंगतियाँ ,दिल के जज़्बात की सटीक अभिव्यक्ति है हसीब सोज़ साहब की शायरी ! आत्मचिंतन और ख़ुद से मुठभेड़ के बाद उनकी कलम से निसृत शायरी वो वितान रचती है कि महसूस हो हाँ,यहाँ तो हमारे मन बात है ! एक कलमकार का सबसे बड़ा हासिल ये होता है कि वो अपनी शिनाख़्त हासिल कर ले !सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल साइट्स पर ग़ज़लें   पढ़कर कभी-कभी इक शाइर का ये मिसरा मन में कौंधता है- ’कब तलक सुनते रहें हम एक जैसी गुफ़्तगू’  लेकिन अगर हसीब सोज़ जी को पढ़ा जाए तो आप उनके संग्रह ‘अपनी ज़मीन से’ की पहली ग़ज़ल से लेकर आख़िरी ग़ज़ल तक बस हसीब सोज़ को ही पायेंगे किसी और का ध्यान भी आपके ज़ेहन के आसपास से नहीं गुजरेगा ! संग्रह क