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दिसंबर, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मन नया बना रहे

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  मन नया बना रहे पिछले तीन-चार साल से नए साल पर कोई रेसोल्यूशन लेना छोड़ दिया.ऐसा भी नहीं कि जब पहले संकल्प लेती थी तो उसे पूरा करने की कोशिश नहीं करती थी या पूरे नहीं कर पाती थी.कितने संकल्प लिए और पूरे भी किये.लेकिन धीरे-धीरे लगने लगा कि केवल नया साल ही नहीं जीवन का हर आने वाला पल नया है और वो नया पल क्या स्थिति ला दे,क्या प्रेरणा दे दे,क्या ज़िद ठनवा दे कुछ नहीं पता. उसके परिणाम में कुछ मनचाहा हो जाये तो अच्छा लगता है और नहीं भी कुछ मिलता तो भी ये कहते देर नहीं लगाती कि अरे तो क्या हुआ जो नहीं मिला ? नहीं मिलना था सो नहीं मिला. सुख के भी अपने पैमाने बन गए हैं.अब तो जी खोल के तब भी ख़ुश हो जाती हूँ जब अपने आप कोई हर्बल टी इंवेंट कर लेती हूँ और उसका सिप ले लेकर अपनी पीठ थपथपाती हूँ. चेहरे पर बढ़ते फ्रेकल्स की चिंता भी कम हुई और चेहरे पर बिना कुछ लगाए बाहर जाने की इच्छा अब पूरी करने लगी हूँ तो उस पर भी ख़ुश हूँ. कितना कम जानती हूँ और कितना अधिक है जानने को इसका मलाल अब कम होता है क्योंकि ये भी पहचान गयी हूँ कि जब चुनिन्दा चीजों को जानने में मैं ही जी लगाती हूँ तो क्यों बिना जी वाला काम करूँ

मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं

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  सूर्य उदय के बानक बनकर आये जो अँधियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। जाने कितनी मंशाओं ने आरोपों की झड़ी लगाई मेरी स्वीकृति के द्वारे पर विद्वेषों की कड़ी लगाई मुझे देखकर चुभन सह रहे नयन मुझे पनियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। आत्मचेतना की क्यारी में मेरे श्रम के फूल खिले जब उन्हें देख अनुकूल हवाओं के भी रुख़ प्रतिकूल मिले तब चकित हुई थी किंतु आज वो स्याह मुझे उजियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। प्रश्न न होते तो उत्तर देने को क्या मैं उद्यत होती समय नहीं जो अवसर देता क्या ख़ुद से मैं अवगत होती मुझको संकल्पित नद करते ये सारे नदियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले हर गलियारे प्रिय हैं। मुझे विरोधों,अवरोधों ने नित नूतन संकल्प दिए हैं जिन तीरों से घाव मिले मैंने उनसे ही घाव सिए हैं सुदृढ़ हुई जिन पर चलकर मैं कंटक वो अनियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले हर गलियारे प्रिय हैं। सोनरूपा २२-१२-२१ {मुख़ालफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ ~बद्र साहब बस इत

मेरी कल्पित अभिलाषा को, तुम ऐसा विन्यास तो देना

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  मेरी कल्पित अभिलाषा को तुम ऐसा विन्यास तो देना, बेशक मेरे साथ न चलना पर अपना एहसास तो देना. जैसे अँखुआती धरती भी फूलों की आशा होती है जैसे बूँदों की छन-छन भी अम्बर की भाषा होती है तुम भी ऐसा आलम्बन बन, मुझको इक उल्लास तो देना. डग भर की दूरी को शायद हम दोनों ही नाप न पाएं उष्म क्षणों के अनुपम अनुभव की शायद हम भाप न पाएं फिर भी रिक्त-रिक्त पावस को सिक्त-सिक्त मधुमास तो देना. विधि का लेखा मेट सके जो ऐसी विधि हमने कब जानी पास नहीं है जो अपने वो निधि हमने अपनी कब मानी लेकिन सबकुछ पा लेने का, तुम मुझको विश्वास तो देना. #sonroopa_vishal