संदेश

छोटी कविता लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तितलियों ने दिये रंग मुझे

चित्र
  तितलियों ने दिये रंग मुझे और चिड़ियाँ चहक दे गईं प्यार की चंद घड़ियाँ मुझे, फूल जैसी महक दे गईं बारिशों ने इशारा किया साथ आओ ज़रा झूम लो देख लो रूप अपना खिला आईने को ज़रा चूम लो ये हवायें,घटायें सभी मुझको अपनी बहक दे गईं। ना को हाँ में बदलने में तुम वाक़ई एक उस्ताद हो सारी दुनिया अदृश हो गयी जबसे तुम मुझमें आबाद हो भावनाएं भी समिधाएं बन मीठी-मीठी दहक दे गईं। चैन की सम्पदा सौंपकर अनवरत इक तड़प को चुना याद का इक दुशाला यहाँ नित उधेड़ा दुबारा बुना लग रहा है कि लहरें मुझे आज अपनी लहक दे गईं । {प्रिय का साथ हो तो सावन ही नहीं, हर मौसम प्यारा लगता है।आज बारिश सा निर्बाध,सरल सा एक गीत} #Sonroopa_vishal #hindigeet #hindipoetry

जब रिश्ते में साँस नहीं है

चित्र
  ||गीत|| जब रिश्ते में साँस नहीं है फिर कैसे स्पंदन होगा। बेल तभी तो पुष्पित होगी जब कोई आलम्बन होगा। जो अनुभूत किया है मैंने उसको तो स्वीकारूँगी मैं जो स्पष्ट नज़र आया है उसको क्यों भ्रम मानूँगी मैं जब सब बादल छँटे हुए हैं क्यों बूँदों का नर्तन होगा। अब जब कोई चाह नहीं है तो आख़िर क्यों राह तकूँ मैं जब निर्णय की छाँह तले हूँ क्यों विचलन की धूप चखूँ मैं इन्हीं कुन्दनी किरणों से मेरे घर में आलेपन होगा। प्रेम बहुत बारीक भाव है प्रेम नहीं स्थूल तत्व है प्रेम अकथ को है सुन लेना प्रेम विरल है,प्रेम सत्व है जो अनुभूत स्वत: करना था उसका भी आवाहन होगा ? आस बाँधने,बाट जोहने का अब कोई अर्थ नहीं है मुझमें अब पीड़ा सहने का चुटकी भर सामर्थ नहीं है मेरे इस स्वाश्रयी मनन का मुझसे ही अभिनंदन होगा। मैं इक पुस्तक नहीं कि जिसको जब मन हो तब पलटा जाये मैं अब वो किरदार नहीं हूँ जो तुमको जी भर दुलराये मुझमें उपजी निस्पृहता में तनिक नहीं परिवर्तन होगा। बेल तभी तो पुष्पित होगी जब कोई आलम्बन होगा। सोनरूपा २९ जुलाई २०२१

मैं बस मैं हो जाऊँ

चित्र
  कोई प्रतीक न हो कोई उपमा न हो न कोई नाम हो न कोई रूप हो उस घटने का जिसे मैं अपने भीतर घटते हुए देखूँ वो मेरे होंठों की तृप्त मुस्कुराहट और बन्द आँखों से टपकते आँसुओं में नज़र आये अपनी क्रियाओं की मैं दृष्टा बनूँ अपनी संज्ञा की मैं साक्षी उन सारे कारक को द्वार मानूँ जो मुझे मुझमें प्रवेश करवाएं मैं बस मैं हो जाऊँ जैसे हवा हवा है फूल फूल है सूर्य सूर्य है रात रात है वैसे मैं मैं हो जाऊँ सोनरूपा २६ मई २०२१

जाने क्यों ये निभा रहे हैं बेमन से दस्तूर

अपने हैं बस थोड़े से हम बाहर के भरपूर जाने क्यों ये निभा रहे हैं बेमन से दस्तूर जैसे लम्बी बाट जोहकर नभ में खिलती भोर हम भी ख़ुद से मिलने आते अपने मन की ओर कभी लिए मन में कोलाहल कभी लिए सन्तूर, अपना जीवन जीते हैं जो औरों के ढंग से दूर रहा करते हैं फिर वो अपने ही संग से अपनी ही आंखों को चुभते होकर चकनाचूर हर पल आओ जी लें जैसे अंतिम है ये पल सत्य छुपा है अपने भीतर बाक़ी सब है छल इसी नज़रिए से मिल पायेगा जीवन को नूर 

देश से बढ़कर न समझी हमने कोई प्रीत है

ब्याहता है जोश की जो शौर्य से परिणीत है वो शहादत मौत क्या है ज़िन्दगी की जीत है  मन में गीता के कथन और तन में फ़ौलादी जुनूं फिर विजय हर जंग में अपनी सदा निर्णीत है घर की देहरी तज बढ़े जो देश रक्षा के लिए चाप उन क़दमों की लगती क्रांतिकारी गीत है  माँग सूनी,गोद ख़ाली,कह रही टूटी छड़ी देश से बढ़कर न समझी हमने कोई प्रीत है  है नमन शत शत हमारा एक इक जांबाज़ क   शत्रु की हिम्मत भी जिनके सामने भयभीत है

गुज़ारिश मेरी बहारों से

सुब्ह फूलों से रात तारों से ज़िन्दगी है इन्हीं नज़ारों से मुक्त होती तो और कुछ होती मैं नदी हूँ तो हूँ किनारों से ख़ुद पे इतना यक़ीन करती हूँ दूर रहती हूँ मैं सहारों से हर कोई चाँद से था बाबस्ता मुझको निस्बत थी बस सितारों से अब जो आएं तो फिर न जाएं कभी है गुज़ारिश मेरी बहारों से

चलो आज अपने मन का इक दिन जीकर देखें

चलो आज अपने मन का इक दिन जीकर देखें सोच-सोच रह गए जिसे हम वो भी कर देखें बन्द पड़ी मीठी यादों की अलमारी खोलें उसमें से बचपन पहने लट्टू बन कर डोलें और लड़कपन फिर खिलता अपने भीतर देखें जीवन के पल दोहराएं हम जो हैं मनभावन कोई क्या सोचेगा मन से दूर करें उलझन शर्बत में थोड़ी सी बेफ़िक्री पीकर देखें पौधों सा धरती से ख़ुद को हम जुड़ जाने दें मौसम से ख़ुशबू से ख़ुद को इश्क़ लड़ाने दें छोटी-छोटी हर ख़्वाहिश हम पूरी कर देखें बिस्तर पर अलसाये औंधे पड़े रहें तब तक हाथ पकड़ कर शाम कहे 'उठ भी जाओ'जब तक काश कभी ऐसे ढीले ढाले जीकर देखें

फूल सबके लिए महकते हैं

फूल सबके लिए महकते हैं लोग लेकिन कहाँ समझते है ज़िन्दगी जी रहे हैं हम लेकिन ज़िन्दगी के लिए तरसते हैं वक़्त का एक नाम और भी है लोग मरहम भी इसको कहते हैं रोज़ मिलते नहीं हैं हम ख़ुद से रोज़ ख़ुद से मगर बिछड़ते हैं फूल जैसे जो खिल नहीं पाते फूल जैसे वही बिखरते हैं वक़्त में ख़ासियत है क्या ऐसी वक़्त के साथ सब बदलते हैं

गुंजाइश है क्या ?

चित्र
रिश्तों के दफ़्तरों में सुबह से शाम तक की हाजिरी की थकान से पस्त इंसान को घर (ख़ुद )में भी आकर भी सुकून कहाँ, सुकून के लिए किसी को समर्पण और किसी का समर्पण ज़रूरी है और हाजिरी में समर्पण की गुंजाइश है क्या ?