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जनवरी, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

साथ अपने ले गया बचपन

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  एक सीधा सा सरल सा मन साथ अपने ले गया बचपन फ़िक्र से अंजान रहते थे पँछियों जैसे चहकते थे इंद्रधनु जैसी लिये मुस्कान चुलबुली नदिया सी बहते थे मस्तियों से गूँजता आँगन साथ अपने ले गया बचपन हम थे मौलिक गीत के गायक रह गये अब सिर्फ़ अनुवादक कहने को आज़ाद हैं लेकिन ख़्वाहिशों के बन गए बंधक तृप्ति का, संतुष्टि का हर क्षण साथ अपने ले गया बचपन प्रेम को व्यापार कर बैठे ज़िन्दगी रफ़्तार कर बैठे जो नहीं था ज़िन्दगी का सच झूठ वो स्वीकार कर बैठे सच को सच कह्ता हुआ दर्पण साथ अपने ले गया बचपन रहके अपने आप तक सीमित साधते रहते हैं अपना हित स्वार्थ की पगडंडियों पे चल कर रहे हैं ख़ुद को संचालित भोर की किरणों सा भोलापन साथ अपने ले गया बचपन {बचपन जैसे हिमालय से निसृत गंगा,बिल्कुल कोरा,निर्मल,निश्छल। फिर जिस तरह बहते-बहते न जाने कितनी मिलावटें नदी में होने लगती हैं उसी तरह उम्र के बढ़ने के साथ-साथ हमारे अंदर से भी वो प्यारी सी कोमलता,निश्छलता,निर्मलता ख़त्म होने लगती है।उसी आकलन का ये गीत} #sonroopa #hindipoetry #pichlebaraskagulmohar

पहले उलझन पाने की है, फिर उसको खोने के डर की।

  पहले उलझन पाने की है फिर उसको खोने के डर की। जैसे जीने के उत्सव में बातें मरने के अवसर की। मिट्टी के गुल्लक से तन में कितने सिक्के खरे खरे हैं ये गिनती ही तय करती है भीतर कितने भरे भरे हैं ये भारी पन कम करता है चिंताएं सारी अंतर की। काशी के घाटों सी हलचल को उलझन समझें क्यों हरदम दुख को समझें पर्वत सा क्यों सुख को दुख से आँकें क्यों कम कोंपल भी तब आती है जब जाती है बारी पतझर की। #hindikavisammelan | #hindipoetry

तुम निश्चिंत रहना : श्री किशन सरोज

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  तुम निश्चिंत रहना कविता से प्रेम आपको स्वयं से भी प्रेम करना सिखा देता है। आप जब व्यस्त ज़िन्दगी से कुछ पल कविता के लिए देते हैं तो अपरोक्ष रूप से वो समय आप ख़ुद को दे रहे होते हैं। अपने ह्रदय,अपने मन को दे रहे होते हैं। आज की सुबह हर सुबह जैसी ही व्यस्त थी लेकिन मुझे कुछ पल चुराने थे अपने बेहद प्रिय गीतकवि आदरणीय श्री किशन सरोज जी की स्मृतियों में एकाग्र होकर उनके शब्दों के पूजन के लिए। सो मैंने चुरा ही लिए। अपने स्वर में किशन सरोज जी का गीत गाकर मन तृप्त है। उनका हर गीत प्रेम की आराधना है। आज उनकी प्रथम पुण्यतिथि है। अंकल अपनी सोनरूपा बिटिया का प्रणाम स्वीकारिये। हम सब बहुत याद करते हैं आपको।

कलकत्ता से प्रकाशित 'गम्भीर समाचार 2017' में छपी ग़ज़लें

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  बचपन बेशक जाता लेकिन कुछ नादानी रह जाती , बीत गये लम्हों की मुझ पर एक निशानी रह जाती. मेरे इन हाथों में तुम गर अपना हाथ नहीं देते, मुझमें कितना प्यार है मैं इससे अनजानी रह जाती. एक सबब उससे मिलने का ये भी तो हो सकता था, काश कि इक दूजे को कोई बात बतानी रह जाती. सच्चाई थी तल्ख़ बहुत मेरी सपनीली दुनिया से, कैसे मुझमें बाक़ी सपनों वाली रानी रह जाती. इतनी दुनिया जान चुके हम फिर भी अक्सर लगता है, रोज़ सुबह पर्दा हटने पर कुछ हैरानी रह जाती. बेशक़ तुम ख़ुश रहते अपनी दुनिया में लेकिन फिर भी, थोड़ी सी तो मेरे बिन तुममें वीरानी रह जाती. जब इतनी कड़वाहट लोगों के मन में है तो फिर 'रूप', कैसे लोगों की मिश्री सी बोली बानी रह जाती. कलकत्ता से प्रकाशित 'गम्भीर समाचार 2017' में छपी ग़ज़लें दिसम्बर की मेमोरी ने झलकाईं।आज उसी में से एक ग़ज़ल!

गोपाल दास 'नीरज' जी के जन्मदिवस पर

  छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है। सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है। माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या आँसू गर नीलाम हुए तो समझो पूरी हुई तपस्या रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है। खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी जैसे रात उतार चांदनी पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों! चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आई पनघट पर, लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर, तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों! लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गन्ध फूल की, तूफानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बन्द न हुई धूल की, नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों! कुछ मुखड़ों की न

आत्मबोध का एक गीत

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  भारतीय परिवेश में स्त्री को स्वयं की स्वीकृति के लिए विशेष श्रम करना पड़ता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से हमारे लिए एक परिधि चिन्हित कर दी जाती है। हमारे उभरे हुए अस्तित्व के नैन नक्श को संकुचित दृष्टिकोण की वसा से दबा देने का प्रयत्न किया जाता है। यही पीड़ा ऐसी रचनाओं की जन्मदाता होती है। इस माध्यम से हम अपने अस्तित्व के चारों ओर उगी इन कँटीली झाड़ियों को काटते हैं फिर कहीं जाकर इनमें वो छुपी हुई आत्मविश्वास की फुलवारी हमें नज़र आने लगती है, जो हमने बड़े मन से लगाई था।पिछले दिनों 'नागरी पर्व' के अवसर पर एक ऐसा ही आत्मबोध का पढ़ा था वो गीत आज आप सबके साथ शेयर कर रही हूँ।आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।