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मन नया बना रहे

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  मन नया बना रहे पिछले तीन-चार साल से नए साल पर कोई रेसोल्यूशन लेना छोड़ दिया.ऐसा भी नहीं कि जब पहले संकल्प लेती थी तो उसे पूरा करने की कोशिश नहीं करती थी या पूरे नहीं कर पाती थी.कितने संकल्प लिए और पूरे भी किये.लेकिन धीरे-धीरे लगने लगा कि केवल नया साल ही नहीं जीवन का हर आने वाला पल नया है और वो नया पल क्या स्थिति ला दे,क्या प्रेरणा दे दे,क्या ज़िद ठनवा दे कुछ नहीं पता. उसके परिणाम में कुछ मनचाहा हो जाये तो अच्छा लगता है और नहीं भी कुछ मिलता तो भी ये कहते देर नहीं लगाती कि अरे तो क्या हुआ जो नहीं मिला ? नहीं मिलना था सो नहीं मिला. सुख के भी अपने पैमाने बन गए हैं.अब तो जी खोल के तब भी ख़ुश हो जाती हूँ जब अपने आप कोई हर्बल टी इंवेंट कर लेती हूँ और उसका सिप ले लेकर अपनी पीठ थपथपाती हूँ. चेहरे पर बढ़ते फ्रेकल्स की चिंता भी कम हुई और चेहरे पर बिना कुछ लगाए बाहर जाने की इच्छा अब पूरी करने लगी हूँ तो उस पर भी ख़ुश हूँ. कितना कम जानती हूँ और कितना अधिक है जानने को इसका मलाल अब कम होता है क्योंकि ये भी पहचान गयी हूँ कि जब चुनिन्दा चीजों को जानने में मैं ही जी लगाती हूँ तो क्यों बिना जी वाला काम करूँ

मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं

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  सूर्य उदय के बानक बनकर आये जो अँधियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। जाने कितनी मंशाओं ने आरोपों की झड़ी लगाई मेरी स्वीकृति के द्वारे पर विद्वेषों की कड़ी लगाई मुझे देखकर चुभन सह रहे नयन मुझे पनियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। आत्मचेतना की क्यारी में मेरे श्रम के फूल खिले जब उन्हें देख अनुकूल हवाओं के भी रुख़ प्रतिकूल मिले तब चकित हुई थी किंतु आज वो स्याह मुझे उजियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले सब गलियारे प्रिय हैं। प्रश्न न होते तो उत्तर देने को क्या मैं उद्यत होती समय नहीं जो अवसर देता क्या ख़ुद से मैं अवगत होती मुझको संकल्पित नद करते ये सारे नदियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले हर गलियारे प्रिय हैं। मुझे विरोधों,अवरोधों ने नित नूतन संकल्प दिए हैं जिन तीरों से घाव मिले मैंने उनसे ही घाव सिए हैं सुदृढ़ हुई जिन पर चलकर मैं कंटक वो अनियारे प्रिय हैं। मुझको मंज़िल तक ले जाने वाले हर गलियारे प्रिय हैं। सोनरूपा २२-१२-२१ {मुख़ालफ़त से मेरी शख़्सियत सँवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतराम करता हूँ ~बद्र साहब बस इत

मेरी कल्पित अभिलाषा को, तुम ऐसा विन्यास तो देना

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  मेरी कल्पित अभिलाषा को तुम ऐसा विन्यास तो देना, बेशक मेरे साथ न चलना पर अपना एहसास तो देना. जैसे अँखुआती धरती भी फूलों की आशा होती है जैसे बूँदों की छन-छन भी अम्बर की भाषा होती है तुम भी ऐसा आलम्बन बन, मुझको इक उल्लास तो देना. डग भर की दूरी को शायद हम दोनों ही नाप न पाएं उष्म क्षणों के अनुपम अनुभव की शायद हम भाप न पाएं फिर भी रिक्त-रिक्त पावस को सिक्त-सिक्त मधुमास तो देना. विधि का लेखा मेट सके जो ऐसी विधि हमने कब जानी पास नहीं है जो अपने वो निधि हमने अपनी कब मानी लेकिन सबकुछ पा लेने का, तुम मुझको विश्वास तो देना. #sonroopa_vishal

अपने जज़्बात रोकना सीखा, मैंने दरिया को सोखना सीखा

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  ||ग़ज़ल|| अपने जज़्बात रोकना सीखा, मैंने दरिया को सोखना सीखा. पहले दिल से मैं काम लेती थी, अब ज़हन भी टटोलना सीखा. जिस पे चलती थी बेसबब अब तक, मैंने रस्ता वो छोड़ना सीखा. घर की खिड़की ही खोलती थी मैं, मन की खिड़की भी खोलना सीखा. रोज़ लिख-लिख के चिट्ठियाँ ख़ुद को, मैंने चुपचाप बोलना सीखा. अपनी ख़ुश्बू को लौटता पाकर, फूल सारे बटोरना सीखा. सोचते वक़्त तेरे बारे में, अपने बारे में सोचना सीखा. #sonroopa_vishal #indianpoetess #hindigeet #hindipoetry #प्यार_होता_नहीं_तो_होता_क्या

पुरुष दिवस

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  ||पुरुष दिवस|| पुरुष को पौरुष से परिभाषित किया जाना ही पुरुष के लिए सबसे कठिन है।वो सिद्ध करता रहता है स्वयं को इसी परिभाषा के खाँचे में। वो मज़बूत है ,शक्तिवान है,सक्षम है लेकिन उसे भी होना है भावुक,कोमल,रो देने वाला,कह देने वाला कि मुझसे नहीं निभ पायेंगी सब ज़िम्मेदारियाँ,जी लेने वाला कभी सिर्फ़ अपने लिए। दरअसल वो बाहर से पूरा दिखता है पर अंदर से अधूरा है।उसे डूब कर उबरना है,उसे रोकर हँसना है,उसे गिरकर सम्भलना है। स्त्रियों हो जाने दीजिए उसे ऐसा ,बन जाइये उसके लिए एक कंधा,एक रूमाल,एक उँगली। आज दुनिया पुरुष दिवस मना रही है उसने तुम्हारे स्त्रीत्व को पूर्णता दी है तुम उसके पुरुषत्व को पूर्णता देना। ~सोनरूपा #mensday #sonroopa_vishal #प्यार_होता_नहीं_तो_होता_क्या

'दैनिक जागरण विमर्श' कार्यक्रम के अंतर्गत दैनिक जागरण द्वारा सम्मान

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  'दैनिक जागरण विमर्श' कार्यक्रम के अंतर्गत दैनिक जागरण द्वारा सम्मान. ज़िला पंचायत अध्यक्ष रश्मि पटेल जी,शिक्षाविद वंदना शर्मा जी एवं उद्यमी शारदा भार्गव जी के हाथों ये सम्मान प्राप्त हुआ.अच्छा लगा साथ ही एक बार फिर महसूस हुआ कि सोनरूपा ज़िम्मेदारियाँ बढ़ रही हैं तुम्हारी #sonroopa_vishal #दैनिकजागरण #दैनिकजागरणविमर्श2021

छठ पर्व पर

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  इधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में छठ नहीं होती.लेकिन जब से संचार के माध्यम बढ़े तब से त्योहार केवल विशेष क्षेत्र के न हो कर सबके से हो गए.और हम भारत वासी हैं भी तो उत्सव प्रेमी.हर त्योहार मनाना चाहते हैं.हमारे यहाँ मेरा-तुम्हारा नहीं बल्कि एकत्व प्रबल है. अभी घर लौटी तो सबसे पहले टी.वी. खोला.उत्सुक थी अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देती हुई स्त्रियों को देखने के लिए.इस समय लंबी माँग भरी,चटक साड़ियाँ पहनी व्रती स्त्रियाँ पूजन सामग्री लिए जल में बस उतर ही रही हैं पूजन के लिए.कितना कठिन व्रत होता है छठ का लेकिन निष्ठा और आस्था के समक्ष सारी कठिनाइयाँ हार जाती हैं. सूर्य को कृतज्ञता ज्ञापित करते,अपने परिवार की सुख समृद्धि की कामना करते जनसैलाब को देख कर मुझे भी पिछले वर्ष इलाहाबाद में बहती संगम की धारा और उसमें झिलमिलाती डूबते सूर्य की किरणों के मद्दम होते हुए वो दृश्य याद आ गए जिन्हें मैंने जी भर जिया था. इस समय भी मेरे पास न बहंगी है,न आसपास नदी,न पोखर, न छठ का परिवेश लेकिन मन है आराधना का. जिसे स्वीकारें सूर्य देवता. आप सबको छठ की शुभकामनाएं.आपके परिवार पर छठी मैया का आशीर्वाद बना रहे. मेरा यदि
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अटल जी, ईश्वर से कहिएगा जिस मिट्टी से आपको बनाया उसी मिट्टी से सारे नेताओं को बनाये।क्यों कि आप अनुपम थे,आपके लोग प्रतिद्वंदी तो रहे लेकिन विरोधी नहीं कितनी बड़ी ख़ासियत थी ये आप की।कितने संवेदनशील कवि,कितने दृढ़ निश्चयी,उत्कृष्ट वक्ता,स्वच्छ राजनीति के हरेक मापदंडों पर खरे। बड़ी लकीर खींच गए हैं आप इससे बड़ी लकीर खींचने वाले आप जैसे अजातशत्रु राजनीति को हमेशा ज़रूरत रहेगी। आप लम्बी उम्र जी कर भी गए और लंबे वक्त तक राजनीति में सक्रिय रह कर भी गए ये संतोष है। दोबारा आइये इस धरती पर फिर से एक युग पुरुष के रूप में। आपको विनम्र प्रणाम। _/\_ ~सोनरूपा #पुण्यतिथि  

ये है हिंदुस्तान हमारा प्यारा हिन्दुस्तान

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  || वंदन गीत || आप सभी को 75 वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं क़िस्मत वालों को मिलता है ऐसा देश महान। ये है हिंदुस्तान हमारा प्यारा हिंदुस्तान। धर्म अलग हैं, वेश अलग हैं, अलग-अलग हैं बोली फिर भी इक दूजे के बनकर रहते सब हमजोली जैसे अलग-अलग फूलों से बन जाती है माला जैसे रंग कई मिल कर रच देते हैं रंगोली ऐसे प्यारे मंज़र पर लाखों मंज़र क़ुर्बान। ये है हिन्दुस्तान हमारा प्यारा हिंदुस्तान। अलबेले त्यौहार हैं इसके, संस्कृतियाँ हैं अनगिन जगमग दीवाली-सी रातें, होली से रंगीं दिन पर्वत, नदियाँ, सागर, फ़सलें, मौसम हैं धन-दौलत शून्य लगे अस्तित्व हमारा इक पल भी इसके बिन जन्म यहाँ लेकर मिल जाए जीवन को सम्मान। ये है हिन्दुस्तान हमारा प्यारा हिंदुस्तान। सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया के गीतों का ये स्वर है दुश्मन के क्षय को लेकिन रहता हरदम तत्पर है दंश कई झेले हैं इसने घाव कई हैं झेले शक्ति और दृढ़ता के बल पर भारत अजर-अमर है आदि काल से विश्व गुरु की है इसकी पहचान। ये है हिंदुस्तान हमारा प्यारा हिन्दुस्तान। #India #Independencedayindia

|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा || इंदिरा इंदु

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|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा || नवम पुष्प : इंदिरा इंदु अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और सशक्त कविताओं की उत्तम एवं सुरीली प्रस्तुति के कारण काव्य मंचों पर एक अलग और उल्लेखनीय पहचान रखने वाली कवयित्री इंदिरा इंदु जी को आज इस सीरीज़ के माध्यम से प्रणाम कर रही हूँ। महादेवी वर्मा,सुमित्रा कुमारी सिन्हा और स्नेहलता श्रीवास्तव के बाद इंदिरा इंदु मंच से जुड़ी ही नही देश भर में छा गईं। पिता जी डॉ. उर्मिलेश ने 1975 के आसपास से कवि सम्मेलनों के अत्यधिक पसंद किए जाने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठा पा ली थी।बचपन से मैंने देश के अनेक शहरों के नाम सुन लिए थे।लेकिन मुरैना शहर न केवल इसीलिए कि पिता जी वहाँ कविसम्मेलनों में जाते हैं बल्कि इसीलिए भी मेरे लिए परिचित शहर था कि वहाँ इंदिरा इंदु आँटी रहती हैं। मुझे बचपन की कुछ झलकियाँ आज भी याद हैं।जब मैंने पहली बार उन्हें देखा था और मैं उनके लंबे क़द,गले में रुद्राक्ष की माला,घुँघराले लंबे बाल,चौड़े माथे पर लम्बा लाल टीका देख कर बड़ी प्रभावित हुई थी।कद्दावर लगती थीं काफ़ी। मुझे याद है कि जाड़ों में हाई नेक स्कीवी पहना करती थीं साड़ी क

तितलियों ने दिये रंग मुझे

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  तितलियों ने दिये रंग मुझे और चिड़ियाँ चहक दे गईं प्यार की चंद घड़ियाँ मुझे, फूल जैसी महक दे गईं बारिशों ने इशारा किया साथ आओ ज़रा झूम लो देख लो रूप अपना खिला आईने को ज़रा चूम लो ये हवायें,घटायें सभी मुझको अपनी बहक दे गईं। ना को हाँ में बदलने में तुम वाक़ई एक उस्ताद हो सारी दुनिया अदृश हो गयी जबसे तुम मुझमें आबाद हो भावनाएं भी समिधाएं बन मीठी-मीठी दहक दे गईं। चैन की सम्पदा सौंपकर अनवरत इक तड़प को चुना याद का इक दुशाला यहाँ नित उधेड़ा दुबारा बुना लग रहा है कि लहरें मुझे आज अपनी लहक दे गईं । {प्रिय का साथ हो तो सावन ही नहीं, हर मौसम प्यारा लगता है।आज बारिश सा निर्बाध,सरल सा एक गीत} #Sonroopa_vishal #hindigeet #hindipoetry

|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || सुमित्रा कुमारी सिन्हा

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  ||हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा|| अष्टम पुष्प:सुमित्रा कुमारी सिन्हा सन 1913 में फ़ैज़ाबाद,उत्तर प्रदेश में जन्मी प्रसिद्ध कवयित्री एवं कहानीकार सुमित्रा कुमारी सिन्हा अपने समय की एक बेहद प्रशंसित,चर्चित एवं उल्लेखनीय नाम रहीं। उन्हें छायावाद और यथार्थवाद के सेतु के रूप में पहचाना जाता है। इन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कवयित्री के रूप में किया था।प्रथम काव्य संकलन 'विहाग' के लिए इन्हें इलाहाबाद में एक प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित किया गया। बाल उपयोगी साहित्य और रेडियो रूपक के क्षेत्र में भी इन्होंने व्यापक लेखन किया।इनके तीन काव्य संग्रह 'विहाग','आशा पर्व','बोलों के देवता' प्रकाशित हैं। आज से इतने वर्ष पूर्व जब स्त्रियों का जीवन अत्यंत विसंगतियों भरा था ऐसे समय में भी उनकी कविताओं में स्वाभिमान एवं अपने अस्तित्व के प्रति सजग रहने वाली स्त्री नज़र आती है। सुमित्रा जी 17 वर्ष की उम्र में विवाह हो गया।पति ज़मीदार परिवार से थे।पति का साहित्यिक और सामाजिक जीवन मे इन्हें ख़ूब सहयोग मिला।सुमित्रा जी तीन बेटों एवं एक बेटी की