दृष्टि नहीं है भेद पाने की
     सुविधायें भी दुविधायें हैं   कभी कभी   जब लगता है   मेरे पास दृष्टि नहीं है   भेद पाने की  भौतिक चश्मे को उतार कर देख पाने की    सुख की उन असीमित पराकाष्ठाओं को  जिस सुख का पाठ सदियों से महापुरुषों के मुख से होता आया है   कभी कभी  इनका आवरण उतार कर  मिलना चाहती हूँ  उस प्रश्न   के उत्तर से   जहाँ मैं प्रतिरोध कर पाऊं  अपने शारीरिक कष्टों का  और प्रेरक बने वो मेहनतकश औरत  जिसके लिए सूखी रोटी भी उसके हीमोग्लोबिन का स्तर ऊँचा रखती है    मशीनी सुकून की आदतों को दरकिनार कर  छत पर ओस की धागे सी बारीक झिमझिमाहट के नीचे सोऊँ  जब तक जागूँ करती रहूँ झंकृत अपनी बातों से  चाँद सितार को       चेहरे की रंगत के दब जाने से बेपरवाह  धूप से भी कर लूँ दोस्ती  जिससे अब तक मेरे घर के अचार,बड़ियों,कपड़ों का ही बेतकल्लुफ़ सा रिश्ता है   बहुत बहुत बहुत बहुत बहुत सारी   छोटी-बड़ी इच्छाओं सी पतंगों की दिशाओं का और उड़ानों का  प्रारंभ भी मैं और अंत भी मैं ............        
