मेरी आई बॉल्स पलकों में क़ैद हैं

तीन दिन बाद घर वापस आई हूँ ,आदतन इन दिनों आये अखबार खंगाले बिना मुझे चैन नहीं आता, ख़ास-ख़ास ख़बरें पढ़ रही हूँ और अब नींद भी आने लगी है |

स्पोंडिलाईटिस का दर्द पिछले कुछ दिनों से परेशान कर रहा है, और यूँ ही पढ़ते-पढ़ते अख़बार के दैनिक कॉलम पर मेरी नज़र गयी है पूरे कॉलम में बस यही बात को मैंने ढंग से  और दो बार पढ़ा है जहाँ डॉ.शिंडलर कहते हैं कि ‘डॉक्टर के पास जाने वालों में से ९९ प्रतिशत को कुछ नहीं हुआ होता है वे डॉक्टर के पास इसीलिए जाते हैं उन्हें अपनी भावनाओं को काबू करने की कला नहीं मालूम ,फिर उन्होंने ये भी बताया की बीमार घोषित किये गए लोगों में भी ज़्यादातर इसीलिए बीमार हैं क्योंकि उनके पास सकारात्मक विचार नहीं’ये पैरा को पढ़कर इसमें से मैंने अपने काम लायक सत निकाल लिया ,कि सोनरूपा तुम भी अपनी छोटी-छोटी तकलीफ़ों को नज़रंदाज़ करना सीखो |मैंने लाइट्स ऑफ कर दी हैं |लेकिन लेटते ही कई बातें नींद में ख़लल डाल रही हैं मेरे आई बॉल्स बंद पलकों में क़ैद हैं और आँखें खुलने का इंतज़ार कर रही हैं मुझे एक ही रास्ता सूझ रहा है कि बस लिख डालूँ,२ बज रहे हैं और मैं टाइप कर रही हूँ |

१५ तारीख़ को तिहाड़ जेल में एक कविसम्मेलन में जाना हुआ,वहाँ सिर्फ़ अपनी कविता सुनाते वक़्त ही शायद मैं अपने काव्यपाठ की ओर दिमाग लगा पाई बाक़ी जितनी देर मैं वहाँ रही सामने बैठे कैदियों के चेहरों पढ़ती रही ,मुझे लगा कि कुछ दुर्दान्त अपराधियों से अलग कुछ चेहरे सिर्फ़ एक पल की ग़लती से सज़ायाफ्ता हैं,कुछ चेहरे क़िस्मत के दगाबाज़ होने का दंश झेल रहे हैं ,और इस मन:स्तिथि को सही पढ़ लेने की मेरी कोशिश पर मुहर सी लगती दिखाई दी जब मैंने जेल में होने वाली प्रार्थना में उन चेहरों पर वही कहानियाँ गढ़ी हुई दिखाई दीं जो मेरा मन उनके लिए लिख रहा था|
मैं वापस घर आ गई थी लेकिन क्या सचमुच आ पाई थी ?

कभी-कभी एक पल ज़िन्दगी की सबसे बड़ी कहानी बन जाता है और कभी कभी एक कहानी को एक पल ख़त्म भी कर देता है |

इस वक़्त मुझे नींद न आने की वजह देर रात गीतकार संतोषानंद जी के बेटे-बहू का दर्दनाक अंत की ख़बर पढ़ लेना है|

अगर ज़िन्दगी ऊन के गोले की तरह उलझ जाये फिर सुलझा भी ली जाये इतना आसान कहाँ होता है,गीतकार संतोषानन्द जी के बेटे संकल्प और बहू नंदिनी के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं रहा होगा , इसीलिए उन्होंने जान देकर इस पहेली को सुलझाना चाहा | एक कवि औरों से ज़्यादा संवेदनशील होता है और अगर वो औरों के दर्द पूरी शिद्दत के साथ लिख सकता है तो ज़ाहिर है अपना दर्द वो कभी नहीं भुला सकता ,ऐसे ही संतान के बिछोह से मिलने वाले दर्द के बाद एक बेहतरीन गीतकार संतोषानंद जी को ‘वक़्त का मरहम उनका ज़ख्म भरेगा’ जैसी तसल्ली देना सिर्फ़ रस्म अदायगी है और हमारा संतोष है |

इसी तरह एक मजदूर को कोटे दार से अनाज की बार-बार भीख माँगकर भी अनाज नहीं मिल पाया,बीवी बच्चों को भूख से कलपता कैसे देखता ? इसीलिए वो भी चल दिया संकल्प और नंदनी की राह पर| एक ये ख़बर और |

लेकिन ये जाने वाले लोग फिर एक प्रश्नपत्र हमारे हवाले कर गए , व्यवस्था के ख़िलाफ़ एक खुली शिकायत दर्ज़ करवा गए |


ये भी सच है ऐसे पल ठहराव लाते हैं,इन पलों में कमरे की छत पर भी इबारत लिखी नज़र आ सकती है, लेकिन दुनिया से विरक्ति भी एक पल में होती है आसक्ति भी एक पल में|

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टिप्पणियाँ

  1. सांत्वना में कहे गए शब्द झूठ के सिवा कुछ नहीं होते...। दुख कभी नहीं मरते हैं।

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