'यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकठ्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है '
एक पत्रिका के लिए नामवर शायर 'हसीब सोज़'जी के ग़ज़ल संग्रह 'अपनी ज़मीन से' का मजमून(समीक्षा) लिखने का अवसर मिला!यहाँ भी शेयर कर रही हूँ!
!! हिंदुस्तानी ज़बान के शायर : हसीब सोज़!!
साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो उसने अपने समय की ज़िन्दगी को अपने-अपने तौर पर पेश किया है !
ज़माने के रंग ,तौर तरीक़े ,विसंगतियाँ ,दिल के जज़्बात की सटीक अभिव्यक्ति है हसीब सोज़ साहब की शायरी !
आत्मचिंतन और ख़ुद से मुठभेड़ के बाद उनकी कलम से निसृत शायरी वो वितान रचती है कि महसूस हो हाँ,यहाँ तो हमारे मन बात है !
एक कलमकार का सबसे बड़ा हासिल ये होता है कि वो अपनी शिनाख़्त हासिल कर ले !सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल साइट्स पर ग़ज़लें पढ़कर कभी-कभी इक शाइर का ये मिसरा मन में कौंधता है-
’कब तलक सुनते रहें हम एक जैसी गुफ़्तगू’
लेकिन अगर हसीब सोज़ जी को पढ़ा जाए तो आप उनके संग्रह ‘अपनी ज़मीन से’ की पहली ग़ज़ल से लेकर आख़िरी ग़ज़ल तक बस हसीब सोज़ को ही पायेंगे किसी और का ध्यान भी आपके ज़ेहन के आसपास से नहीं गुजरेगा ! संग्रह की पीठ पर नामवर कवि,ग़ज़लकार प्रदीप चौबे जी की राय है जो हसीब सोज़ जी की शायरी पर बिलकुल सटीक है !
दरअसल अंतर्मन का नाद हो या बाहरी जीवन का कोलाहल ग़ज़ल को ग़ज़ल ही होना होता है! ग़ज़ल रेत सी ख़ुश्क नहीं,भावनाओं का पठार नहीं ये वो विधा है जिसमें मन की ध्वनियाँ हैं तो बाहरी समाज का कोलाहल भी और इन सब के बीच इसमें लफ़्ज़ों की लोच ,हर्फों की बरतने का सलीका भी सध जाए तब ग़ज़ल ग़ज़ल होती है ! ग़ज़ल के शिल्प में जितनी शिल्प की बाध्यता ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी कथ्य का बिम्बात्मक और प्रतीकात्मक प्रस्तुतिकरण!
कुछ शेर देखिये-
मैं टाटा बिड़ला से आगे निकलना चाहता हूँ
तू एक रात ठहर जा ग़रीबखाने में
वो किस मज़े से हवा में उड़ा रहा है मुझे
मैं एक बूँद हूँ दरिया बता रहा है मुझे
किसी के साथ हमने वो भी दिन बरबाद कर डाले
कि जब मिट्टी उठा लेते तो सोना हो गया होता
प्रख्यात कवि डॉ उर्मिलेश का कहना है ‘ग़ज़ल को अख़बार होने से बचाया जाए,ग़ज़ल का हर शेर अपने समय की ख़बर दे या उस ख़बर से हमें परोक्षत: ख़बरदार करे ,यह तो चलेगा लेकिन वह अख़बार की हद चला जायेगा तो वह शेर नहीं रह जायेगा’!
और हसीब सोज़ जी की शायरी की ख़ासियत है कि हर शेर अपने आप में एक पूरा कथानक है रवानगी नदी की लहर सी ,लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा कमाल का , कहीं सपाटबयानी नहीं !
रवायती शायरी अब गुज़रे ज़माने की बात है !लोग अब उर्दू-हिन्दी की डिक्शनरी खोलकर अर्थ खोजना नहीं चाहते !’शब्दों में किफ़ायत बरतने की कला ,कसापन,कम शब्दों में गहरी और असरदार बात और कोटेबल शेर’ इन मायनों में हसीब सोज़ जी की शायरी खरी उतरती है उनके कुछ शेर ख़ूब उद्घृत किये जाते हैं !उनके शेर आम आदमी की आवाज़ हैं !
तअल्लुक़ात की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता है
तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब देना पड़ा
चराग़ ले के मुझे आफ़ताब देना पड़ा
बीड़ी सिग्रेट के धुएँ भी ज़ाफ़रानी हो गये
लोग दौलत की बदौलत ख़ानदानी हो गये
ये रस्मी जुमला हमेशा रिपीट होता है
हज़ार ख़ूबियाँ थीं आह मरने वाले में
देख ले तेरी सख़ावत किस क़दर मशकूक है
ये भिकारी भीक का बर्तन भी छोटा लाये हैं
स्वार्थपूर्ति हेतु अपने स्वाभिमान को ताक पर रख रास्ता बनाना ज़माने का शगल हो गया है ऐसे में सोज़ साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए हम एक अना पसंद व्यक्तित्व से मिलते हैं-
अगर शर्तों पे मिलता है तो दरिया छोड़ देता हूँ
मैं अपने आप को हर रोज़ प्यासा छोड़ देता हूँ
सामाजिक जीवन की विद्रूपताएँ देखिये -
शायद मुआफ़ पिछली ख़ताएँ नहीं हुईं
मरने के बाद शोक सभाएं नहीं हुईं
कोई कमाल था न हम में कोई ख़ूबी थी
ये दुनिया कैसे हमारी मुरीद हो जाती
आज ज़िन्दगी से सुकून के पल इस क़दर गुम हो रहे हैं कि स्तिथि ये हो जाती है –
कहीं तनाव की सीमा न इतनी बढ़ जाए
कि ख़ुदकुशी भी किसी रोज़ करनी पड़ जाए
रात दिन सबको कोई काम लगा रहता है
शहर में चारों तरफ जाम लगा रहता है
कुछेक शेर अलग रंग के भी पढ़िए जिन्हें पढ़ कर बरबस चेहरे पर मुस्कान आ जाती है –
कई दिनों के लिए उसको देख लेता हूँ
वो इत्तिफाक़ से जब भी गली में मिलता है
हम तो इस शर्त पे भी देखने आये हैं तुझे
अंधे हो जायेंगे जिस वक़्त नज़ारा होगा
एक ज़िम्मेदार कलम स्व से सर्व की यात्रा तय करती है !हसीब सोज़ जी की शायरी ये ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती है !वो पत्र पत्रिकाओं जितने चाव से पढ़े जाते हैं उतने ही मुशायरों में भी पसंद किये जाते हैं उनके यहाँ मंच और किताब में कोई फ़ासला नहीं !
हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के झगड़े ने ग़ज़ल की आत्मा को आहत किया है और ऐसे में हसीब सोज़ जी की ग़ज़लों का सुखद पहलू ये है कि उनका लहजा वो है जो हिन्दुस्तानी आवाम का लहजा है !अपनी ग़ज़लों के बारे में उनका जो कहना है वो मेरे लिखे जाने से ज़्यादा आपको उनका नज़रिया जानने का मौक़ा देगा –
‘अपनी ज़मीन से’ में अपनी शायरी के बाबत वो क्या कहते हैं पढ़िए –
‘लव लेटर में स्पेलिंग की नहीं बल्कि लफ़्ज़ों का अर्थ मायने रखता है ,शायरी की सच्ची तारीफ़ यही है कि कान सुने और दिल महसूस करे और ऐसा उस वक़्त संभव है जब दिल की बात दिल से कही जाए !हिन्दी शायरी –उर्दू शायरी ,यह दो ज़बानों का मतभेद नहीं बल्कि दो ज़हनों की अपनी ज़िद है !मेरे ख़याल में ये काम तब और भी आसान हो जाता है जब हम हिन्दुस्तानी ज़बान इस्तेमाल करें हिंदुस्तानी ज़बान का मतलब है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक बोली भी जाती है,समझी भी जाती है ,जिसकी पीठ पर न कोई हिन्दी का ठप्पा है न उर्दू का !आसान लफ़्ज़ों में अवामी गुफ़्तगू ही शायरी का सबसे बड़ा कमाल है !वह शेर ज़िन्दा रहता है जो याद रहता है’ !
और हसीब सोज़ जी की शायरी वाक़ई अपने हर पाठक को याद रह जाने वाले शायरी है और ये पाठक और रचनाकार दोनों की ही ख़ुशनसीबी है!
-सोनरूपा विशाल
【संग्रह के लिए सम्पर्क करें-हसीब सोज़-9720735172】
कई झूठे इकठ्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है '
एक पत्रिका के लिए नामवर शायर 'हसीब सोज़'जी के ग़ज़ल संग्रह 'अपनी ज़मीन से' का मजमून(समीक्षा) लिखने का अवसर मिला!यहाँ भी शेयर कर रही हूँ!
!! हिंदुस्तानी ज़बान के शायर : हसीब सोज़!!
साहित्य की कोई भी विधा क्यों न हो उसने अपने समय की ज़िन्दगी को अपने-अपने तौर पर पेश किया है !
ज़माने के रंग ,तौर तरीक़े ,विसंगतियाँ ,दिल के जज़्बात की सटीक अभिव्यक्ति है हसीब सोज़ साहब की शायरी !
आत्मचिंतन और ख़ुद से मुठभेड़ के बाद उनकी कलम से निसृत शायरी वो वितान रचती है कि महसूस हो हाँ,यहाँ तो हमारे मन बात है !
एक कलमकार का सबसे बड़ा हासिल ये होता है कि वो अपनी शिनाख़्त हासिल कर ले !सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं ,सोशल साइट्स पर ग़ज़लें पढ़कर कभी-कभी इक शाइर का ये मिसरा मन में कौंधता है-
’कब तलक सुनते रहें हम एक जैसी गुफ़्तगू’
लेकिन अगर हसीब सोज़ जी को पढ़ा जाए तो आप उनके संग्रह ‘अपनी ज़मीन से’ की पहली ग़ज़ल से लेकर आख़िरी ग़ज़ल तक बस हसीब सोज़ को ही पायेंगे किसी और का ध्यान भी आपके ज़ेहन के आसपास से नहीं गुजरेगा ! संग्रह की पीठ पर नामवर कवि,ग़ज़लकार प्रदीप चौबे जी की राय है जो हसीब सोज़ जी की शायरी पर बिलकुल सटीक है !
दरअसल अंतर्मन का नाद हो या बाहरी जीवन का कोलाहल ग़ज़ल को ग़ज़ल ही होना होता है! ग़ज़ल रेत सी ख़ुश्क नहीं,भावनाओं का पठार नहीं ये वो विधा है जिसमें मन की ध्वनियाँ हैं तो बाहरी समाज का कोलाहल भी और इन सब के बीच इसमें लफ़्ज़ों की लोच ,हर्फों की बरतने का सलीका भी सध जाए तब ग़ज़ल ग़ज़ल होती है ! ग़ज़ल के शिल्प में जितनी शिल्प की बाध्यता ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी कथ्य का बिम्बात्मक और प्रतीकात्मक प्रस्तुतिकरण!
कुछ शेर देखिये-
मैं टाटा बिड़ला से आगे निकलना चाहता हूँ
तू एक रात ठहर जा ग़रीबखाने में
वो किस मज़े से हवा में उड़ा रहा है मुझे
मैं एक बूँद हूँ दरिया बता रहा है मुझे
किसी के साथ हमने वो भी दिन बरबाद कर डाले
कि जब मिट्टी उठा लेते तो सोना हो गया होता
प्रख्यात कवि डॉ उर्मिलेश का कहना है ‘ग़ज़ल को अख़बार होने से बचाया जाए,ग़ज़ल का हर शेर अपने समय की ख़बर दे या उस ख़बर से हमें परोक्षत: ख़बरदार करे ,यह तो चलेगा लेकिन वह अख़बार की हद चला जायेगा तो वह शेर नहीं रह जायेगा’!
और हसीब सोज़ जी की शायरी की ख़ासियत है कि हर शेर अपने आप में एक पूरा कथानक है रवानगी नदी की लहर सी ,लफ़्ज़ों को बरतने का सलीक़ा कमाल का , कहीं सपाटबयानी नहीं !
रवायती शायरी अब गुज़रे ज़माने की बात है !लोग अब उर्दू-हिन्दी की डिक्शनरी खोलकर अर्थ खोजना नहीं चाहते !’शब्दों में किफ़ायत बरतने की कला ,कसापन,कम शब्दों में गहरी और असरदार बात और कोटेबल शेर’ इन मायनों में हसीब सोज़ जी की शायरी खरी उतरती है उनके कुछ शेर ख़ूब उद्घृत किये जाते हैं !उनके शेर आम आदमी की आवाज़ हैं !
तअल्लुक़ात की क़ीमत चुकाता रहता हूँ
मैं उसके झूठ पे भी मुस्कुराता रहता है
तिरी मदद का यहाँ तक हिसाब देना पड़ा
चराग़ ले के मुझे आफ़ताब देना पड़ा
बीड़ी सिग्रेट के धुएँ भी ज़ाफ़रानी हो गये
लोग दौलत की बदौलत ख़ानदानी हो गये
ये रस्मी जुमला हमेशा रिपीट होता है
हज़ार ख़ूबियाँ थीं आह मरने वाले में
देख ले तेरी सख़ावत किस क़दर मशकूक है
ये भिकारी भीक का बर्तन भी छोटा लाये हैं
स्वार्थपूर्ति हेतु अपने स्वाभिमान को ताक पर रख रास्ता बनाना ज़माने का शगल हो गया है ऐसे में सोज़ साहब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए हम एक अना पसंद व्यक्तित्व से मिलते हैं-
अगर शर्तों पे मिलता है तो दरिया छोड़ देता हूँ
मैं अपने आप को हर रोज़ प्यासा छोड़ देता हूँ
सामाजिक जीवन की विद्रूपताएँ देखिये -
शायद मुआफ़ पिछली ख़ताएँ नहीं हुईं
मरने के बाद शोक सभाएं नहीं हुईं
कोई कमाल था न हम में कोई ख़ूबी थी
ये दुनिया कैसे हमारी मुरीद हो जाती
आज ज़िन्दगी से सुकून के पल इस क़दर गुम हो रहे हैं कि स्तिथि ये हो जाती है –
कहीं तनाव की सीमा न इतनी बढ़ जाए
कि ख़ुदकुशी भी किसी रोज़ करनी पड़ जाए
रात दिन सबको कोई काम लगा रहता है
शहर में चारों तरफ जाम लगा रहता है
कुछेक शेर अलग रंग के भी पढ़िए जिन्हें पढ़ कर बरबस चेहरे पर मुस्कान आ जाती है –
कई दिनों के लिए उसको देख लेता हूँ
वो इत्तिफाक़ से जब भी गली में मिलता है
हम तो इस शर्त पे भी देखने आये हैं तुझे
अंधे हो जायेंगे जिस वक़्त नज़ारा होगा
एक ज़िम्मेदार कलम स्व से सर्व की यात्रा तय करती है !हसीब सोज़ जी की शायरी ये ज़िम्मेदारी बखूबी निभाती है !वो पत्र पत्रिकाओं जितने चाव से पढ़े जाते हैं उतने ही मुशायरों में भी पसंद किये जाते हैं उनके यहाँ मंच और किताब में कोई फ़ासला नहीं !
हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के झगड़े ने ग़ज़ल की आत्मा को आहत किया है और ऐसे में हसीब सोज़ जी की ग़ज़लों का सुखद पहलू ये है कि उनका लहजा वो है जो हिन्दुस्तानी आवाम का लहजा है !अपनी ग़ज़लों के बारे में उनका जो कहना है वो मेरे लिखे जाने से ज़्यादा आपको उनका नज़रिया जानने का मौक़ा देगा –
‘अपनी ज़मीन से’ में अपनी शायरी के बाबत वो क्या कहते हैं पढ़िए –
‘लव लेटर में स्पेलिंग की नहीं बल्कि लफ़्ज़ों का अर्थ मायने रखता है ,शायरी की सच्ची तारीफ़ यही है कि कान सुने और दिल महसूस करे और ऐसा उस वक़्त संभव है जब दिल की बात दिल से कही जाए !हिन्दी शायरी –उर्दू शायरी ,यह दो ज़बानों का मतभेद नहीं बल्कि दो ज़हनों की अपनी ज़िद है !मेरे ख़याल में ये काम तब और भी आसान हो जाता है जब हम हिन्दुस्तानी ज़बान इस्तेमाल करें हिंदुस्तानी ज़बान का मतलब है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक बोली भी जाती है,समझी भी जाती है ,जिसकी पीठ पर न कोई हिन्दी का ठप्पा है न उर्दू का !आसान लफ़्ज़ों में अवामी गुफ़्तगू ही शायरी का सबसे बड़ा कमाल है !वह शेर ज़िन्दा रहता है जो याद रहता है’ !
और हसीब सोज़ जी की शायरी वाक़ई अपने हर पाठक को याद रह जाने वाले शायरी है और ये पाठक और रचनाकार दोनों की ही ख़ुशनसीबी है!
-सोनरूपा विशाल
【संग्रह के लिए सम्पर्क करें-हसीब सोज़-9720735172】
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