कल फेसबुक पर कवि सम्मेलन के वर्तमान परिदृश्य को लेकर बड़ी ज़रूरी चर्चा पढ़ी!इस पोस्ट का मन्तव्य था जो मुझे लगा कि साहित्य का दूसरा खेमा मंचीय कविता को  नकारता है और उसका कारण कवि सम्मेलनों में बढ़ती स्तरहीनता है लेकिन सारे मंच और सारे कवि ऐसे नहीं तो सब को एक ही तौर से देखना ज्यादती है!

मेरा भी यही मानना है कि हर मंच इस तरह की वृत्तियों से दूषित हो ऐसा नहीं है !आज भी बहुत से ऐसे मंच हैं जहाँ कविता अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में विराजित होती है!

अभी दो तीन महीने पहले मेरा एक लंबा आलेख  भोपाल से प्रकाशित पत्रिका 'गीत गागर' में आया था!'आज के कवि सम्मेलन बहस और विमर्श की ज़रूरत'!अगले अंक में चिट्ठी पत्री वाले स्तम्भ में आलेख की सराहना पढ़ने को मिली,पाठकों के फोन कॉल्स भी आये!
फेसबुक पर पत्रिकाओं में छपने की ख़बरें कम ही शेयर करती हूँ इसीलिए ये भी नहीं की !लेकिन इस आलेख को शेयर न करने का एक कारण ये भी था कि निश्चित तौर पर मैं इस आलेख के कुछ अंश डालती,अपने विचार रखती और मुझे यक़ीनन यहाँ भी समर्थन मिलता, लेकिन इससे हासिल क्या होता?
क्यों कि जब तक ऐसे लेख,चर्चाओं,बहस में रखे गए विचारों को प्रयास कर अमल में न लाया जाए तब तक ये सब बेमानी हैं!
आज अपना ये लेख इस उम्मीद के साथ शेयर कर रही हूँ कि अब बहुत हुआ!कवि सम्मेलन कविता को जनता से जोड़ने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है ,इसे नदी को निर्मल और निर्बाध रखने की ज़िम्मेदारी कवि सम्मेलन के आयोजन जुड़े सभी लोगों की है!

!! आज के कवि सम्मेलन ,बहस और विमर्श की ज़रूरत!!

हिंदी कवि सम्मेलन  का  मंच उस धारा को पोषित करता है जिसमें भागी दारी कर श्रोता मनोरंजन,विचारशक्ति ,भाषायी समझ ,ज़हनी ख़ुराक पाता है !कवि सम्मेलन के इतिहास में वो स्वर्णिम क्षण शामिल हैं जब कवि सम्मेलनों ने जनता को जागरण की मशाल थमाई ,जीवन के प्रत्येक पहलुओं को कविता के रसमयी वाचन से परत दर परत समझना,जानना,बरतना बतलाया ,इसीलिए कवि सम्मेलन के पास अपने इतिहास की समृद्धि है !

कवि सम्मेलन  अपने सृजनात्मक हुनर को सधे  ढंग से पूरी तैयारी के साथ प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म है !जनमानस द्वारा स्वीकृत इस मंच पर जहाँ सिर्फ कविता सुनाना  ही काफी नहीं होता बल्कि उसे इस तरह पेश किया जाना कि वो अवाम तक पूरी तरह सम्प्रेषित हो भी उतना ही ज़रूरी है !

पुराने वक़्त में शासक वर्ग ने कविता को आम आदमी से दूर रखने का कुत्सित प्रयास किया वही काम आज अकादमियां कर रही हैं ,गद्य कविता को ऊँचा स्थान देकर उसे साहित्य के उच्चतम पुरस्कारों से नवाज़ा जाता है और पद्य कविताओं को हीन दृष्टि से देखा जाता है !कविता जितनी क्लिष्ट होगी उतनी उत्कृष्ट ये उनकी मान्यता है ऐसा लगता है ! कविता खेतों में न गूंजे ,असहायों की आवाज़ न बने ,भौरों का गुंजन न बन सके ,संकरी पगडंडियों के सफर को आसान न बना सके लेकिन बुद्धिजीवियों से लैस विचारगोष्ठियों के कक्ष में विराजित हो , उस पर शोध प्रबंध रचे जाएँ उनके इन प्रयोजनों को कवि सम्मेलन  जैसे जनता के बीच होते रहने वाले आयोजनों ने पूरी तरह सफल नहीं होने दिया।कविताओं  का गरिष्ठ और क्लिष्ट होना उत्कृष्ट रचना का पर्याय नहीं ! ऐसी कविता भी क्या जो ज़िन्दगी के,मन के असलियत के क़रीब न हो !

 कविसम्मेलन ने कविता को आम जनता तक पहुँचाया ,उन्हें मनोरंजित किया !कवि  सम्मेलन  एक रात का वो जागरण हुआ करता है जो श्रोताओं के मनकक्ष  को आलोकित करता है फिर सोचिये कितनी ज़िम्मेदारी और ईमानदारी की ज़रुरत हैं इस प्रयोजन के लिए !  यहाँ पढ़ी जाने वाली रचना अनगिनत तजर्बों से गुज़रती है यहाँ आपके रचन की परख होती है ! एक समर्पित अदबी किसी भी ज़रिये से अवाम को खुश करने के लिए फ़िक्र के रख रखाव को नज़रअंदाज़ नहीं करता है ,कविता को तत्कालित वाहवाही  के लिए हल्का नहीं बनाता  है !सपाटपसंद दिमाग़ से तालमेल बिठलाने की कोशिश नहीं करता है !
३०-४० साल पहले के कविसम्मेलन और मुशायरों में और आज के कविसम्मेलन और मुशायरों में खासा फ़र्क़ आया  है !कविसम्मेलन मेट्रो सिटीज़ में होते हैं ,गाँव, क़स्बों में ,मेलों में ,एकेडमीज़ में ,रेडियो,टेलीविज़न ,शिक्षण संस्थान में !जिस तरह स्थान अलग अलग उसी तरह ज़हन भी अलहदा ! जगह और ज़हन के अनुसार कवियों का चयन ,कविताओं का स्तर भी बदल जाता है ! कही कहीं ऐसे कवि भी बुलवा लिए जाते हैं जिनका साहित्य से कोई वास्ता नहीं होता लेकिन विशिष्ट प्रस्तुतीकरण के साथ हलकी रचनाओं को जनता तक सम्प्रेषित करने में ये सिद्धहस्त होते हैं!

 वास्तविकता तो ये है की मंच वो ज़मीन  है जिसके अंतर पर लहलहाए शज़र सी कवितायें श्रोताओं को विचार पुष्प  उपहार देती है  जिससे उनका मानस सुगन्धित होता है ,लेकिन आज स्तिथि बिलकुल विपरीत है अपनी कमज़ोर कविता को ताकतवर चुटकुलों के रेपर में लपेट कर या किसी दूसरे कवि की उत्कृष्ट रचनाओं को अपने काव्यपाठ के बीच बीच में उद्घृत कर खुद को मंच के सफल कवि के रुप पेश किये जाने के उपक्रम की किसी से पर्दादारी नहीं है !सरस्वती के मंच पर द्वअर्थी संवाद,भद्दे चुटकुले,अशालीन नोंकझोंक का प्रपंच,धार्मिक उन्माद से लबरेज़ कविताओं द्वारा जनता से तालियों के रूप में त्वरित प्रति क्रिया पाकर कविसम्मेलन को सफल करा देने का दम्भ पाले,कुछ कवियों ने आज मंच को दूषित बना दिया है !कविसम्मेलन के मंच को स्वस्थ आवो हवा देने के लिए कविसम्मेलन  संयोजकों को भी अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी !

दरअस्ल मंच एक काव्यपत्रिका के अंक की तरह है जिस में व्यंग,गीत,हास्य,ग़ज़ल जैसे  संस्करण मौजूद रहते हैं सभी संस्करण अपने रस का निष्पादन करें तभी उसे  एक ईमानदार अभिव्यक्ति कहेंगे! लेकिन हास्य रस के अलावा अन्य रस के कवि भी  तालियों की चाहत के लिए अशालीन हास्य का सहारा लेने से नहीं चूकते ,हास्य को साथ लेना बिलकुल बुरा नहीं है !मुस्कुराहट के पल ज़िंदगी को ज़िंदगी बनाते हैं  लेकिन जनता इस रस के वास्तविक स्वरूप यानि शालीन और मनोरंजक से सिक्त हो ये शर्त होनी चाहिए ! अगर कवियों से  मंच पर उनके फूहड़ हास्य या अति साधारण शिल्प की या  उन्मादी कविताओं के सन्दर्भ में  सवाल किये जाएँ तो अक्सर यही उत्तर सुनने को मिलता है की जनता यही सुनना चाहती है मनोविनोद चाहती है ,अगर हम श्रोताओं को अपनी कविताओं के माध्यम से  ज़िंदगी की मुश्किलात से थोड़ी देर को दूर ले जाएँ तो क्या गलत है ? बिलकुल गलत नहीं है लेकिन मेरी नज़र में कविता मनोविनोद के साथ  मनोचिकित्सक का काम भी करती है ,मन की पीड़ाओं को हरना,विचार शक्ति सौंपना ,नए और सार्थक नज़रिये देना कविताओं से मनोचिकित्सा करना ही तो है !और ऐसे वक़्त में तो कवियों की ज़िम्मेदारी और ज़्यादा बढ़ जाती है जब जीवन से मानवीयता,संवेदनशीलता,सुकून,प्रेम ,अपनेपन का प्रतिशत लगातार घट रहा हो ! ज़माना सायबर युग का है एक दशक पहले कविता को यात्रा करते करते बरस बीतते थे आज पल भर में आप का कहन लाखों लोगों के बावस्ता हो जाता है साथ ही साथ आपकी छोटी सी छोटी भाव-भंगिमाओं ,टिप्पड़ियों के ऑडियो-विडिओ विज़ुअल्स पल भर में सरक्युलेट हो जाते हैं !आज का वक़्त पल-पल को दर्ज़ कर लेने वाला है !

एक रचनाकार  का फ़र्ज़ है कि वो अपनी कविता के उच्च स्तर तक श्रोताओं के कानों और ज़हनो को तैयार करे न कि जनता के  ज़हनों के अनुरूप अपनी रचनाओं को ढाल ले ! हालात के, वक़्त के तक़ाज़े  साहित्य को रास्ता दिखाएँ ये बिलकुल उलट बात है !मंच पर कविता के गिरते स्तर का एक मुख्य कारण ,साहित्य के महनीय व्यक्तित्वों जिनकी उपस्तिथि काव्यमंचों का गरिमामयी होना है उनकी खामोशियाँ भी हैं ,जो चल रहा है चलते रहने दिया जाये  जैसी उदासीनता भी है !कवि सम्मलेन की अंदरूनी दुनिया भी विवादों और राजनीति की  शिकार है !

लेकिन हर मंच इस तरह की वृत्तियों से दूषित हो ऐसा भी नहीं है !आज भी बहुत से ऐसे मंच हैं जहाँ कविता अपने सर्वश्रेष्ठ स्वरूप में विराजित होती है!

चूँकि आज कवि सम्मलेन पूरी तरह से कमर्शियल हो चुका है इसीलिए काव्य आयोजनों में कवि को मंच पर जनता द्वारा स्वीकृत किया जाना बहुत ज़रूरी है यानि आज एक कवि को परफ़ॉर्मर होना भी बहुत ज़रूरी है। कभी-कभी ऐसा होता है कि बढ़िया से बढ़िया रचनाओं को अच्छी तरह से प्रस्तुत न किये जाने की वजह से कवि अपने सरोकारों और अपनी रचना के उद्देश्य को जनता तक नहीं पहुंचा पाते वहीं अच्छे परफॉर्मर बेकार सी बेकार कविताओं को भी अपने बढ़िया प्रस्तुतीकरण से और बार बार तालियां बने के आग्रह करके जनता से  वाह वाही पाकर खुद को सफल साबित कर जाते हैं !आप अच्छे परफॉर्मर हैं लेकिन अच्छे कवि नहीं ,या अच्छे कवि हैं लेकिन अच्छे परफॉर्मर नहीं ये समीकरण भी ठीक नही !मेयारी कविताओं को अच्छे प्रस्तुतिकरण से जनता तक पहुँचना कवि सम्मलेन की सफ़लता है !हालांकि ये भी सत्यता है श्रोता भी ऐसी गैर मेयारी कविताओं पर तात्कालिक वाह वाही  दे तो देते हैं लेकिन सम्मान उन्हीं को देते हैं जिनके पास वाक़ई मेयारी रचनाशीलता है ! 

कविता को जन जन तक पहुँचाने का माध्यम हैं पत्र पत्रिकाएं और  कविसम्मलेन , मुशायरे महफ़िलें। दोनों ही ज़रियों का अगर सम्यक विवेचन किया जाये तो दोनों ज़रियो की  पूर्वपीठिका के साथ-साथ युगीन परिस्थियों पर विमर्श प्राथमिक है लेकिन यहाँ इस तरह का मूल्यांकन नाममात्र को है अगर हैं भी तो सम्यक नहीं ,समग्र नहीं !कवि सम्मेलनीय कविता को आलोचना और समीक्षा के दायरे से हमेशा बाहर रखा गया, इस माध्यम का मूल्यांकन न होना वाक़ई दुर्भाग्य है !इस वजह से भी कविता से महरूम लेकिन फिर कवि कहाये जाने वालों की संख्या में इज़ाफ़ा होता रहा !ये ज़रूरी नहीं कि मेरे इस मत से इत्तेफ़ाक़ रखा ही जाये  लेकिन इतना तो सच है समय-समय पर कुछ बहसें,विचार गोष्ठी ज़रूर की जाएँ कि मंच पर कविता का स्वरूप है कैसा है ,कैसा था ,क्या होना चाहिए ! 
इस सिलसिले में मुझे मीर  का एक शेर याद आता है 'शेर मेरे हैं गो खवासपसन्द /गुफ़्तगू पर मुझे अवाम से है  ये शेर बड़ा मौजू है आज के  कविसम्मेलन मुशायरों के परिपेक्ष्य में ,अगर इस तरह का बैलेंस अगर मंच पर बना लिया जाए तो आज का मंच फिर वही गरिमा पा सकेगा, कवि कलम के प्रति ,श्रोता अपने ज़हन के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझे तो समस्या हल हो जाएगी ! विचारों का कोई निश्चित गंतव्य नहीं होता ,बस एक उचंग सी उठती है और वो उचंग ,वो धुआँ, वो विचलन मुनासिब शब्द पा जाएँ ,वही कवितायेँ अपना सफर पूरा कर पाती हैं !कवि होना बहुत बड़ा सौभाग्य है ,ईश्वर की बख़्शी अनमोल देन है इसका इस्तेमाल सही उद्देश्य से किया जाना चाहिए !
#सोनरूपा

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