भय अजय होने न दूँगी

 इस अपरिमित ऊर्जा का तनिक क्षय होने न दूँगी।

भय अजय होने न दूँगी।
केंद्र को विकेन्द्र होते देखना असहाय होकर।
यत्न कोई भी न करना हो खड़े निरुपाय होकर।
ये सदा सामर्थ्य की लगती मुझे अवहेलना है।
इसलिए बिखराव के ये चक्र सारे भेदना है।
गति सुगन्धों की हवाओं से मैं तय होने न दूँगी।
भय अजय होने न दूँगी।
चेतना की दृष्टि ही विस्तार से परिचय कराती।
फिर न कोई शक्ति हमसे व्यर्थ का अभिनय कराती।
सीख जाते हम अगर हर सत्य अंगीकार करना।
फिर बहुत आसान है जीवन सहज स्वीकार करना।
अब ये मानस का गगन मैं धुँधमय होने न दूँगी।
भय अजय होने न दूँगी।
बाह्य जीवन पर जगत का भी तो कुछ अधिकार होता।
आंतरिक जीवन मगर इस चित्त के अनुसार होता।
बस यहीं मैं आत्मा का मांगलिक शृंगार करके।
और फिर प्रतिबिंब से उसके रहूँगी सज सँवर के।
सृष्टि के शाश्वत नियम की भंग लय होने न दूँगी।
भय अजय होने न दूँगी।
सोनरूपा
१६ जनवरी २०२२
{मन के बिखराव को एकत्र करने की जो कुछ चेष्टायें हैं उनमें से एक लिखना है.ये गीत इसी की परिणति है}

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