भले बच्चे बड़े हो जायें, माएँ उन्हें लोरी सुनाना चाहती हैं

'कोई लहरों से कह दे साथ दे दें,

मेरे ख़त  क्यों बचाना चाहती हैं'

ज़माना सोशल साइट्स का है ,अब कहाँ रहा ख़त का ज़माना ! इस शेर में बदलाव करो ! कुछ वाक़ये ,कुछ दौर  दोबारा ज़िंदगी का हिस्सा बने तुम्हारा मन नहीं करता क्या  ? हाँ,करता है ! लेकिन मुमकिन है ये होना ?  नहीं! लेकिन ख़त अभी भी लिखे जा सकते हैं !ख़तों के वुजूद के आगे,एहसास  के आगे कहाँ ये मेसेंजर ,व्हाट्सएप ,फ़ेसबुक !

लेकिन यहाँ भी तो तुम ख़तों को लहरों में बहा कर ख़त्म कर देना चाहती हो !फिर ? लेकिन इनको बहा देने से जो दर्द बाहर आयेगा उसमें सुकून होगा यक़ीनन ! हाँ ये तो है ! फिर ये शे'र रख लूँ  ग़ज़ल में ? हाँ ज़रुर रखो ! (जब तक मन राजी नहीं हो जाता तब तक इक इक थॉट इतने सवाल जवाब करवाया करता है  और फिर कहीं जाकर पूरी ग़ज़ल हो पाती  है)

तमन्नायें ठिकाना चाहती हैं

तेरे पहलू में आना चाहती हैं

ज़रा नज़दीक आकर  बैठियेगा

ये आँखें आबोदाना चाहती हैं

बदन के रंग रुख़सत हो चुके हैं

मगर साँसें निभाना चाहती हैं

हमें पढ़ने की चाहत और कुछ है

किताबें कुछ पढ़ाना चाहती हैं

ये दिल विश्वास करना चाहता है

निगाहें सच बताना चाहती हैं

भले बच्चे बड़े हो जायें

माएँ उन्हें लोरी सुनाना चाहती हैं

कोई लहरों  से कह दे साथ दे दें

मेरे ख़त क्यों बचाना चाहती 

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