सार्थक हो गीत तब सदभाव का

कालिमा के कंचनी बदलाव का गीत गाना है हमें सद्भाव का

चाँद से लेती किराया रात क्या ?

भेद करती है किसी से प्रात क्या ?

फूल देते हैं कभी आघात क्या ?

पेड़  के  बैरी  बने हैं पात क्या 

प्रश्न जो समझा रहे उस भाव का गीत गाना है हमें सदभाव का

सर्द से रिश्तों को गर्माहट मिले सूनी गलियों को मधुर आहट मिले गुमशुदा नावों को

अपना तट मिले हर रुदन को शीघ्र मुस्काहट मिले  

न क्षणों के सुखमयी दोहराव का गीत गाना है हमें सदभाव का  रुख़ हवा का मोड़ने का प्रण करें

चाह परिवर्तन की जन गण मन करें देश सर्वोपरि रहे

निज स्वार्थ से भावना सच्ची ये सब धारण करें

अंत हो, आतंक का, अलगाव का

सार्थक हो गीत तब सदभाव का ।

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