तुम्हारे लम्स की ख़ुश्बू थी, इसमें मुझे ये पैरहन धोना नहीं था

तुम्हारे लम्स की ख़ुश्बू थी

इसमें मुझे ये पैरहन धोना नहीं था

नैशविल का कवि सम्मेलन था वो, हर जगह लगभग 3 घण्टे के कार्यक्रम के बाद श्रोताओं से इंट्रेक्शन भी ख़ूब होता था।इसी दौरान एक 30 से 35 साल के बीच का एक युगल जो बहुत देर से मुझे देख रहा था,मेरी ओर आया। दोनों पति पत्नी थे ,कानपुर IIT से पढ़ कर अब यहाँ कुछ सालों से अमेरिका में सेटल थे। हेलो मैम... कह कर पत्नी मुझसे बोली कि ...मे आई टच योर हैंड्स। मैंने कहा- श्योर।

उन्होंने मेरा हाथ छुआ फिर दोनों हथेलियों से पकड़ कर भावुक होती हुई बोलीं-इस शेर ने मुझे मेरी माँ की याद दिला दी। मैंने कहा- कैसे? वो बोलीं कि मैं एक शहीद की बेटी हूँ।मेरे पापा तब शहीद हो गए जब हम बहुत छोटे थे। मेरी माँ ने पापा के बाद बहुत दुख झेला।पापा के कपड़ों को आज भी माँ जान से ज़्यादा सहेज कर रखे हुए है।वो उनको जीवित मानती हैं।उनकी ख़ुश्बू को महसूस करती हैं।उनका यही विश्वास उनका हौसला है और आज हम यहाँ पर हैं तो उसके पीछे उनकी यही हिम्मत थी।तीन सालों से उनसे मिल नहीं पाई हूँ आज और ज़्यादा याद आ गई उनकी।

मैं चुप थी, मेरा ये साधारण शेर किसी को इतना द्रवित कर गया।मैंने जब ये शेर कहा था तो शायद एक प्रेमिका का हिज्र में भी वस्ल को महसूसने का भाव रहा हो। लेकिन उस दिन इस भाव को शिद्दत से जीने वाली एक स्त्री को जानकर थोड़े से आँसू मेरी आँखों से भी ढलकने लगे थे।

आज पुलवामा हमले का एक साल पूरा हुआ है। अगर आज मैं ये कहूँ कि सबसे निस्वार्थी अगर कोई है तो वो है हमारे देश का सैनिक। जो चाहे तो वो भी हमारी तरह सुकून की ज़िन्दगी जिये।परिवार के साथ रहे। लेकिन नहीं उसे तो हम सबके लिए जीना है,देश के लिए जीना है। कौन सी मिट्टी से बनाते हैं ईश्वर इन्हें।

कितनी कविताएं,मुक्तक,ग़ज़लें मैंने लिखीं हैं शहीदों पर,सैनिकों पर लेकिन सब अधूरी लगती हैं इनके पूरे जज़्बे को देखकर।

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