अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ
अँधेरे में तारे उगाने की सोचूँ,
कभी ख़ुद से भी मैं निभाने की सोचूँ.
मैं ख़ुद तो उसे भूल जाने की सोचूँ,
मगर ख़ुद उसे याद आने की सोचूँ.
अगर दिल है भारी तो रोकूँ क्यूँ आँसू ,
ये मोती कहाँ जो बचाने की सोचूँ.
यही बेवकूफ़ी तो करती रही हूँ,
जो बाक़ी नहीं वो बचाने की सोचूँ.
कभी सोचती हूँ जो सब याद रखना,
कभी सब वही भूल जाने की सोचूँ.
जो अंदर ही अंदर अगर टूट जाऊँ,
तो बाहर से ख़ुद को सजाने की सोचूँ.
ज़माना तो काटेगा पर,जानती हूँ,
मैं पौधे परों के लगाने की सोचूँ.
मैं सोयी थी,अब जाग कर कुछ सुकूँ है,
सो सोए हुओं को जगाने की सोचूँ.
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