स्त्री की कविता,कविता की स्त्री


 'कविग्राम' के होली एवं महिला दिवस विशेषांक में प्रकाशित आलेख🍁

सम्पादक-चिराग़ जैन


||स्त्री की कविता और कविता की स्त्री||


ईश्वर अपनी कृति के नैन-नक्श, रंग-ढंग, हाव-भाव से परिचित होता है और स्त्री ईश्वर की अनुगामिनी प्रतीत होती है। उसके अपनत्व की परिधि में जो भी सम्मिलित हैं, उसे उन्हें न केवल जानने की ललक रहती है वरन वो बिना व्यक्त हुए मनोभावों को भी समझने में परिपक्व होती है। इसके उलट वो आज सबसे कम समझा गया किरदार नज़र आती है। तभी तो उसकी खोज में अनगिनत कविताओं, उपन्यास व कहानियों की रचना हुई।

जिस क्षण जीवन का आरम्भ हुआ था उसी क्षण शायद स्त्री ने जान लिया था कि प्रेम और सृजन उसके जीवन की अनिवार्यता हैं। अनगिनत रूप, नाम और क़िरदार जीती हुई, स्वयं से, समय से निरन्तर संवाद करती हुई, चलती हुई अथक, अनवरत स्त्री एक सृजक है, पोषक है। जिस तरह किसी भी पक्षी का एक पंख के सहारे उड़ना असम्भव है। जिस तरह जड़ के बिना पुष्प का खिलना असम्भव है उसी तरह इस मानव जीवन का प्रारम्भ पुरुष और स्त्री के बिना असम्भव ही होता। ये वो समय था जब कोई भेदभाव न था। तब कोई हिन्दू-मुस्लिम जैसी संज्ञाएँ न थीं। कोई वाद न था। कोई सत्ता न थी। स्त्री-पुरुष के चिह्नित होने का आरम्भ तो आदम-हव्वा, एडम-ईव, मनु-शतरूपा बनने से हुआ। समान महत्व वाले दो जीवनप्रदाताओं में शनैः- शनैः एक की यात्रा कुछ ज़्यादा उतार-चढ़ाव वाली होती चली गयी। वो कठिन राह स्त्री की थी। वो कभी राम की मर्यादा और विवशता बन गयी, कभी कृष्ण का रास, कभी प्रसाद की श्रद्धा, तो कभी निराला का कोई मेहनतकश चरित्र। कभी शरत की परिणीता, कभी बुद्ध का सन्देह और कभी तुलसी की ताड़ना की अधिकारी। 

ईश्वर ने न केवल शारीरिक तौर पर पुरुष और स्त्री को भिन्न बनाया बल्कि स्वभावगत भी दोनों भिन्न-भिन्न थे। प्रेम, ममता, दया, करुणा, धैर्य और समर्पण जैसे गुण स्त्री को धरती के रूप में परिभाषित करते तो पुरुष को आसमान के रूप में परिभाषित किया जाता, जो परिवार को छत देता, जिसमें समुद्र का वेग भी होता और पर्वतों-सा बल भी होता। यही नहीं, स्त्री और पुरुष की मानसिक बुनावट में भी बहुत अन्तर होता है। ये विज्ञान ने भी साबित किया है।मैंने कहीं पढ़ा था कि वैज्ञानिक अनुसन्धान के अनुसार पुरुषों के मस्तिष्क का बायां भाग अधिक सक्रिय होता है और स्त्री का दाहिना। इसीलिए स्त्री मन पुरुष की तुलना में अधिक सम्वेदनशील होता है। यह तो ईश्वरीय अन्तर था लेकिन एक बड़ा अन्तर समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर आता चला गया। इन स्थितियों को बदलने की हमने पुरज़ोर कोशिश की और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्यार प्रकट करते हुए उनकी उपलब्धियों के उपलक्ष्य में अनेक उत्सव मनाए जाने लगे। उनकी स्थितियों को लेकर अनेक वार्ताएँ व विमर्श होने लगे। 

कवियों ने भी स्त्री को और उसके मनोभावों को बहुत सुन्दरता से अपनी रचनाओं में व्याख्यायित किया है। स्त्रियों की ये दुनिया इस दुनिया में बसने वाली कोई अलग-थलग दुनिया नहीं है। वह पुरुषों के साथ ही इकसार गुँथी हुई है। जीवन की किताब के हर पन्नो पर उसकी उपस्थिति बनी हुई है। मनुष्यता का इतिहास उसका भी इतिहास है। फिर भी विसंगति यह है कि ये इतिहास बाँचकर भी उसके लिए अनबाँचा रह गया। साहित्य में स्त्री के अस्तित्व का रेखांकन एक दस्तावेज से कम नहीं है। स्त्रियों ने जब साहित्य में अपना मन अभिव्यक्त किया तो सृष्टि में स्त्री की भूमिका और अधिक बेहतर रूप में स्पष्ट हो सकी। 

विख्यात कवयित्री और लेखिका अमृता प्रीतम अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में लिखती हैं- ‘मैं सारी ज़िन्दगी जो भी सोचती और लिखती रही वो सब देवताओं को जगाने की कोशिश थी। उन देवताओं को जो इंसान के भीतर सो गए हैं।’ वो कहती हैं-’ ‘मेरी रचनाओं में ओज नहीं, खोज है। खोज प्रेम की, अमन की, सौहार्द की; जो जीवन के ज़रूरी तत्व थे, लेकिन धीरे-धीरे ये हमारे जीवन से तिरोहित होते जा रहे हैं, जिन्हें समेटकर मैं अपनी कविताओं में संजो लेती हूँ, क्योंकि शब्द ही विकल्प हैं।’ 

जिन कवयित्रियों ने स्त्री के मनोभावों को कविता में पिरोकर उनका सामाजिक इतिहास, उनका हस्तक्षेप और उनके जीवन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मूल्य ‘प्रेम’ के हर कोण का भावनात्मक स्वरूप लिखा; उनकी लेखनी से निःसृत कुछ उदाहरण देने का प्रयास करती हूँ।  

स्त्री चरित्र की तीन विशेषताएँ होती हैं- प्रेम, आँसू और क्रोध। यदि प्रेम स्त्री को काल से भी न डरने वाली सावित्री बना देता है तो आँसू उसे उद्धव जैसे ज्ञानी को भी ज्ञान देने योग्य बनाते हैं और क्रोध में स्त्री चंडी बन जाती है। मीराबाई भक्तिकाल में वो अमर स्वर बनीं जिन्होंने तत्कालीन स्त्रियों की स्वतंत्रता के लिए कठिन समय में भी समाज की कोई परवाह नहीं की। कृष्ण प्रेम में लीन मीरा कहती हैं कि पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।


छायावाद की प्रमुख स्तम्भ महादेवी वर्मा को महीयसी की संज्ञा दी गयी। वे अपने शाब्दिक दीपक आलोकित करती हुई कहती हैं-


चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!

जाग तुझको दूर जाना! 

अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले!

या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले

आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया

जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले!

पर तुझे है नाशपथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!

जाग तुझको दूर जाना! 


सुभद्रा कुमारी चैहान का काव्य स्त्री की जीवटता और वीरता का परिचायक है। वे लक्ष्मीबाई के चारित्रिक गुणों को अपनी कविता में ढालती हुई कहती हैं-


इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी

जलकर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी

यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की

अन्तिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मर्दानी की


स्नेहलता ‘स्नेह’ आन्तरिक सत्य और बाहरी आवरणों का आकलन कितनी स्पष्टता से करती हैं-


जितना नूतन प्यार तुम्हारा, उतनी मेरी व्यथा पुरानी

एक साथ कैसे निभ पाये, सूना द्वार और अगवानी!

तुमने जितनी संज्ञाओं से मेरा नामकरण कर डाला

मैंनें उनको गूँथ-गूँथ कर साँसों की अर्पण की माला

जितना तीखा व्यंग तुम्हारा उतना मेरा अंतर मानी

एक साथ कैसे रह पाये मन में आग, नयन में पानी। 


जब भी साहित्य में एक औरत के विपरीत परिस्थितियों के साथ तय किये गये रास्तों का ज़ि़क्र आयेगा तो मशहूर शायरा परवीन शाकिर ज़रूर याद आयेंगी। औरत के जज़्बात के सबसे बारीक़ तन्तुओं की इतनी पुरअसर बयानगी, कि उनके लिये मन भर दुआएँ निकलती हैं-


वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया

बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की


स्त्री के पक्ष में ईश्वर ने ये बड़ी अच्छी बात की कि उसे पीड़ा, दर्द, बिछोह को सहने की और लड़ने की शक्ति भरपूर दी। स्त्री पीड़ा में भी निखर सकती है। पीड़ा की कवयित्री ज्ञानवती सक्सेना का ये गीत- 


दर्द ने इतना निखारा है मुझे देह मेरी दर्पनी-सी हो गयी 

पाँव के नीचे धरा हटने लगी, तो विवश आकाश में उड़ना पड़ा

जब अन्धेरे का चलन खलने लगा, तो घटाओं से मुझे लड़ना पड़ा 

क्या हुआ काजल कपोलों पर लगा दृष्टि तो हीराकनी-सी हो गयी


इंदिरा गौड़ प्रेम की सघन कवयित्री हैं। प्यार में डूबी स्त्री बुद्ध के समान होती है। उनका गीत याद आता है- ‘मैं सतह पर रह न पाई, और तुम उतरे न गहरे!’


उन्होंने समर्पित स्त्री के मनोभाव लिखे तो वे अपने गीतों में बालमन की अद्भुत चितेरी भी नज़र आईं। और क्यों न हों, एक जन्मदात्री ही तो सबसे अधिक समझती है अपने बच्चे को! सी नारायण रेड्डी कहते हैं- ‘माँ अपने घर में पूरे विश्व की परिकल्पना करती है।’ कवित्व और व्यक्तित्व की धनी कवियत्री इंदिरा ‘इंदु’ विचारणीय प्रश्न उठाती हैं-


तेरे नाम पर लहू की नदियाँ अगर बहेंगी

मेरी आस्थाएँ कैसे तुझे देवता कहेंगी


डाॅ. नसीम निकहत स्त्री पुरुष असमानता पर किस प्रकार अपनी बात रखती हैं, देखिए-


मेरे लिए ये शर्त, मुझे सावित्री बनकर जीना है

और तुझे इसकी आज़ादी, जिस पर चाहे डोरे डाल


डाॅ. सरोजिनी प्रीतम ने की हास्य-व्यंग्य की क्षणिकाएँ गुदगुदाती भी हैं और विचार भी सौंपती हैं-


आज की पीढ़ी कितनी तेज़ है

सब्र का फल मीठा 

लेकिन उन्हें मीठे से परहेज है।


माया गोविन्द हर विधा में पारंगत कवयित्री हैं। उनकी प्रभावशाली प्रस्तुति से उनकी कविता और निखर जाती है। स्त्री सौन्दर्य और उस पर नाज़ का एक उदाहरण है ये छन्द-


मैंने जब आँखिन में, डारा आज कजरा तो

कारी-कारी घटा, घबराय के चली गयी

जैसे घुंघरारी, मैंने अलकें सँवारी; एक

नागिन ने देखा बल खाय के चली गयी

जैसे अंगड़ाई ली, पड़ोस की कुँआरी छोरी

दाँतन मां आंगुरी दबाय के चली गयी

रूप की चमक चिनगारी बन अस फूटि

सौतन अंगीठी सुलगाय के चली गयी


अपनी सम्वेदनशील और विचारप्रवण कविताओं के लिए पहचानी जाने वाली कवयित्री प्रभा ठाकुर की ये कविता जीवन दर्शन का उत्कृष्ट उदाहरण है-


एक आँख है हँसी तो एक आँख पानी

तेरी-मेरी ज़िन्दगी की एक ही कहानी

एक आग दीप में है एक चिता की अगन

एक आग ज्योति है तो आग है जलन

एक ही कथा है किन्तु अलग-अलग मानी 


मधुरिमा सिंह ने स्त्री के जज़्बात को बहुत उम्दा शब्द दिये-


ऐसा नहीं कि दिल में कभी सोचते नहीं

सहते हैं जुल्म तेरे, मगर बोलते नहीं 

दिल के सफ़र की दास्तां पूरी नहीं हुई

देखो किसी को बीच में यूँ टोकते नहीं 


अंजुम रहबर की आमफ़हम शायरी ने कई एहसासात पर बड़ी ख़ूबसूरती से क़लम चलाई है-


मजबूरियों के नाम पे सब छोड़ना पड़ा

दिल तोड़ना कठिन था मगर तोड़ना पड़ा 

मेरी पसन्द और थी सबकी पसन्द और

इतनी ज़रा-सी बात पे घर छोड़ना पड़ा 


मुझे कवयित्री डाॅ. मधु चतुर्वेदी याद आ रही हैं, जो समाज से मिले दंश से और मज़बूत होकर प्रतिकार लेती हैं-


बोझों तले वजूद दबाने का शुक्रिया

इस रेत को चट्टान बनाने का शुक्रिया

दामन सम्हाल कर मुझे चलना तो आ गया

ए काँटो! मेरी राह में आने का शुक्रिया


डाॅ. रमा सिंह की ग़ज़लों का कैनवास बहुत विस्तृत है। प्रेम की ज़रूरत पर वो कहती हैं-


टहनी-टहनी को बहारों की मुहब्बत चाहिए 

हर किसी की ज़िन्दगी को प्यार का ख़त चाहिए 

जिस्म से जो प्यार करते हैं भला समझेंगे क्या 

इश्क़ ऐसा नूर है, जिसको इबादत चाहिए


डाॅ. सरिता शर्मा वाचिक परम्परा की महनीय कवयित्री हैं। उनके गीत स्त्रीत्व की सम्पूर्ण परिभाषा बनते हुए नज़र आते हैं। एक गीत जहाँ एक नदी, जो स्त्री के रूप में बिम्बित है, उसकी बहते-बहते सूखने की व्यथा देखिए-


सुनो समंदर! तिरस्कार सहते-सहते

सूख रही है एक नदी बहते-बहते। 

चान्द सितारे आँचल में दिखलाती थी

तटबन्धों में बन्धकर बहती जाती थी

जंगल-जंगल, बस्ती-बस्ती की ख़ातिर

बून्द-बून्द में प्रेम लिए जो गाती थी

गूंगी लगती है अब चुप रहते-रहते

सूख रही है एक नदी बहते-बहते 


जब स्त्री समाज के बन्धनों, रूढ़ियों को धता बताकर अपनी राह पर बढ़ती है और समाज को तीर-सी चुभती हैं, तब डाॅ. कीर्ति काले की समृद्ध क़लम कितना सशक्त गीत लिखती है-


जब भी मन की माला फेरी, मर्यादा ने आँख तरेरी

परम्परा के लश्कर जागे, गूंजी अम्बर में रण भेरी 


डाॅ. सीता सागर की ओजस्विता स्त्री की सम्पूर्णता पर हस्ताार करती हैं। उनके अनुसार स्त्री स्वयं में एक समाज हैं-


प्यार वाला समाज मेरा है, मेरे हाथों में आज मेरा है

ताज पाकर न तुम यूँ इतराओ, मेरी दुनिया पे राज मेरा है 


मधुमोहिनी उपाध्याय की विविध विषयों पर जब क़लम चलती है तो उसके साथ पूरा न्याय करती है-


शब्दों में शक्ति यहाँ है, भावों में भक्ति यहाँ हैं

माटी को चंदन माने, गुरु में अनुरक्ति यहाँ है

इतनी मीठी है बोली, लगता यूँ मिश्री घोली 

है विमला सरला सरसा, दमके मुख पर ज्यों रोली

हिंदी है प्रेम नजर सी, हिंदी है सुखद सहर सी

है मलय पवन सी सुरभित, हिन्दी है प्रेम लहर सी 


सिया सचदेव की शायरी में औरत बिखर कर सँवरती है, लेकिन इस यात्रा में कितनी टूटन है ये एक शेर ही बयां कर देता है-


जो थे बेहिस वो हो गए पत्थर

जिनमें एहसास था वो टूट गये


डाॅ. अनु सपन का एक ये गीत कभी न विस्मृत किया जा सकेगा-


इस तरह से मुझे आप मत देखिए, भाव सूची नहीं हूँ मैं बाज़ार की

मेरी हर साँस में इक उपन्यास है, कोई कतरन नहीं हूँ मैं अख़बार की


शैलजा पाठक ने कितनी ही औरतों की ज़िन्दगियाँ हू-ब-हू अपनी क़लम से लिख दी हैं। एक आम बेहद आम औरत उनकी कविताओं का मुख्य क़िरदार है-


हम असुन्दर नहीं थे

हमने असुन्दर कहानियाँ सुन ली थीं

कम सुन्दर लड़कियाँ 

ज़्यादा रूपवान पति के आगे याचक ही रहीं

काम से मन जीतना सिखाया गया

आदमी की हर बात पर हाँ कहना

हमेशा यही याद रखना 

कि आदमी बाहर-भीतर जाता है

मन इधर-उधर होने में देर नहीं लगती

ऐसी लड़कियाँ कुंठा के मारे 

जीवन भर कामवाली बाई बनी रहीं

कि कोई अपनी सुंदरता से इनकी लंका न लगा दे


कविता तिवारी की ओजस्वी वाणी न केवल स्त्री के स्वाभिमान की बात करती, बल्कि उसके सशक्तिकरण की बात करती है वरन राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा बनाये रखने का आवाहन भी करती है-


मानव अर्पित हो राष्ट्र हेतु पूजित युग-युग अभिमान रहे

जब तक सूरज चन्दा चमके तब तक ये हिन्दुस्तान रहे


संध्या यादव को स्त्री की आत्मा से संवाद करने वाली कवयित्री कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी ये कविता ही देखिए-


मेरा कुँआरापन 

शरीर से नहीं था, 

आत्मा की गहराई से था ।

चुनौती है मेरी तुम्हें,

मेरी आत्मा के 

कुँआरेपन को

सुहागन बना कर दिखाओ!

शरीर का क्या है ,

वो तो बलात्कार के बाद ही

कुँआरापन खो देता है


प्रज्ञा शर्मा का ये शेर भी एक दास्तां से कम नहीं-


इश्क़ क्या है बस इसी एहसास का तो नाम है

आग का महसूस होना हाथ जल जाने के बाद


अनगिनत रचनाएँ स्त्री मन को लेकर लिखी जा रही हैं, लिखी जाती रहेंगी। वाचिक परम्परा में और भी अनेक नाम हैं जिनके योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। इनकी कविताओं में स्त्रियों के कुकून से तितली बनने का सफ़र है, उनकी मुश्क़िलों की दास्तान है, तो पुरुष से बराबरी के नाम पर उन्मुक्तता के अन्धियारे की कड़वी हक़ीक़त भी है। भारतीय जनमानस और भारतीय परिवेश, स्त्री को किस तौर से स्वीकारता है ये कविताओं से और साहित्य से गुज़र कर जाना जा सकता है।

यूँ तो समग्रता के ही सन्दर्भ लिए जाते हैं और स्त्री विषयक कविताओं के वृहद स्रोत में से कुछ अंश ही इस लेख में हैं। लेख के ज़्यादा बड़ा हो जाने की आशंका को देखते हुए बहुत कम रचनाकारों को मैं उद्धृत कर पायी हूँ। हर प्रकल्प में शब्द विकल्प बनते रहेगें। हम स्त्रियाँ यात्राओं की छात्राएँ हैं, ये यात्रा अनवरत चलती रहेगी।


🍁सोनरूपा विशाल


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