चाँद चलता रहा रवानी में
सुबह के लगभग सात बज रहे थे,और दिनों की बनिस्बत उस दिन मैंने ज़रा जल्दी सुबह का उजाला देखा था ,ऐसा होना ज़रूरी भी था,क्यों कि कुछ दिनों के लिए लिए हम झीलों के शहर उदयपुर में थे ,और सोते रहना बहुत कुछ खो देने जैसा था, मुझे सुबह-सुबह झील से मिलना था और मैं मिली भी,आसमां बादलों की मेहमान नवाज़ी कर रहा था,ख़ामोश झील बूँदों के बरसने से बोल दिया करती है लेकिन उस दिन बादल बिन बरसे वापस लौट गये थे !लेकिन झील ने कुछ कहा जिसे मैंने मन में कुछ इस तरह दर्ज किया- 'झील में भी लहर दिखाई दी अश्क शायद गिरा था पानी में' और वो आधा अधूरा सा कुछ इक ग़ज़ल में पिछले दिनों यूँ ढला _____________________________________________________
सारी दुनिया की निगह्बानी में
चाँद चलता रहा रवानी में
झील में भी लहर दिखाई दी
अश्क शायद गिरा है पानी में
मुश्किलें हैं मगर करूँ क्या मैं
चैन मिलता है सच बयानी में
तुमसे जो बात कह नहीं पाई
उसको लिक्खा है इक कहानी में
फ़िक्र भी छोड़ दे तू अब मेरी
ज़िन्दगी है तेरी निशानी में
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें