आत्मबोध का एक गीत

 भारतीय परिवेश में स्त्री को स्वयं की स्वीकृति के लिए विशेष श्रम करना पड़ता है।

अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से हमारे लिए एक परिधि चिन्हित कर दी जाती है। हमारे उभरे हुए अस्तित्व के नैन नक्श को संकुचित दृष्टिकोण की वसा से दबा देने का प्रयत्न किया जाता है। यही पीड़ा ऐसी रचनाओं की जन्मदाता होती है।
इस माध्यम से हम अपने अस्तित्व के चारों ओर उगी इन कँटीली झाड़ियों को काटते हैं फिर कहीं जाकर इनमें वो छुपी हुई आत्मविश्वास की फुलवारी हमें नज़र आने लगती है, जो हमने बड़े मन से लगाई था।पिछले दिनों 'नागरी पर्व' के अवसर पर एक ऐसा ही आत्मबोध का पढ़ा था वो गीत आज आप सबके साथ शेयर कर रही हूँ।आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।



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