कलकत्ता से प्रकाशित 'गम्भीर समाचार 2017' में छपी ग़ज़लें
बचपन बेशक जाता लेकिन कुछ नादानी रह जाती ,
बीत गये लम्हों की मुझ पर एक निशानी रह जाती.
मेरे इन हाथों में तुम गर अपना हाथ नहीं देते,
मुझमें कितना प्यार है मैं इससे अनजानी रह जाती.
एक सबब उससे मिलने का ये भी तो हो सकता था,
काश कि इक दूजे को कोई बात बतानी रह जाती.
सच्चाई थी तल्ख़ बहुत मेरी सपनीली दुनिया से,
कैसे मुझमें बाक़ी सपनों वाली रानी रह जाती.
इतनी दुनिया जान चुके हम फिर भी अक्सर लगता है,
रोज़ सुबह पर्दा हटने पर कुछ हैरानी रह जाती.
बेशक़ तुम ख़ुश रहते अपनी दुनिया में लेकिन फिर भी,
थोड़ी सी तो मेरे बिन तुममें वीरानी रह जाती.
जब इतनी कड़वाहट लोगों के मन में है तो फिर 'रूप',
कैसे लोगों की मिश्री सी बोली बानी रह जाती.
आहा... बचपन की निशानी की तड़फ से शुरू हुई गज़ल अधूरी बात अगली मिलनी का बहाना हो सकता है से होते हुए 'मेरे बिन थोड़ी सी वीरानी होती' तक..
जवाब देंहटाएंक्या कुछ नहीं है इस ग़ज़ल में।
वाह वाह.. बेहतरीन।
मेरा नया ब्लॉग समय की मांग के अनुसार दो विषयों यथा प्रकृति/पेड़-पौधों और साहित्य रचनाएं/दर्शन पर आधारित है। इस बार की पोस्ट साहित्यिक रचना से सम्बंधित हैं पुलिस के सिपाही से by पाश