मैं बस मैं हो जाऊँ

 कोई प्रतीक न हो

कोई उपमा न हो
न कोई नाम हो
न कोई रूप हो
उस घटने का
जिसे मैं
अपने भीतर घटते हुए देखूँ
वो मेरे होंठों की तृप्त मुस्कुराहट
और बन्द आँखों से
टपकते आँसुओं में नज़र आये
अपनी क्रियाओं की मैं दृष्टा बनूँ
अपनी संज्ञा की मैं साक्षी
उन सारे कारक को द्वार मानूँ
जो मुझे मुझमें प्रवेश करवाएं
मैं बस मैं हो जाऊँ
जैसे हवा हवा है
फूल फूल है
सूर्य सूर्य है
रात रात है
वैसे मैं मैं हो जाऊँ
🌼सोनरूपा
२६ मई २०२१

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