|| हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ मधुरिमा सिंह
|| हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा ||
चतुर्थ पुष्प : डॉ मधुरिमा सिंह
शायरी शौक नहीं मेरा अमीरों की तरह
मेरे अशआर भी होते हैं फ़कीरों की तरह
मैंने माँगा ही नहीं अपने मोहब्बत का सिला
वैसे कुछ था तो हथेली में लकीरों की तरह
'खंडित पूजा'संग्रह के फ्लैप पर छपे डॉ मधुरिमा सिंह को लिखे गए एक पत्र में अपना आशीष देते हुए राष्ट्रकवि पंडित सोहनलाल द्विवेदी कहते हैं-
'कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थवती तुम्हारी रचनायें झकझोरने वाली हैं।ध्वन्यात्मक!तुम्हें पढ़कर चैतन्य हो उठता हूँ।तुम वेदना में स्वयं समाविष्ट हो जाती हो।परकाया-प्रवेश का लगता है,तुमने मंत्र सिद्ध कर लिया है।'
गीत एवं ग़ज़ल की सिद्धस्त हस्ताक्षर डॉ मधुरिमा सिंह 9 मई 1956 में हरदोई में जन्मी। कवयित्री,चित्रकार,संगीत-कला प्रेमी,समाजसेवी और दार्शनिक चिंतक,प्रखर वक्ता जैसे विविध रूपों में उन्होंने अपने जीवन की सार्थकताएँ सिद्ध कीं।काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में उन्होंने डॉक्टरेट की थी।सन 1977 से वे काव्यमंचों से जुड़ गई थीं।विदेशों में भी उन्होंने काव्यपाठ किया।उनकी कविताएँ भी विविध भाषाओं में अनूदित हुईं।
उनके पति श्री जगन्नाथ सिंह जी प्रशासनिक सेवा में रहे।
लखनऊ निवासी मधुरिमा सिंह जी का घर 'अभिव्यक्ति' साहित्यकारों और कलाकारों के स्वागत को हमेशा पलक पाँवड़े बिछाए रहता था।
बीमारी में भी खूब मस्ती से जीने वाली मधुरिमा जी
ज़िंदादिली,जुझारूपन की परिभाषा थीं।
उन्होंने ख़ूब लिखा।विभिन्न विषयों को उनकी क़लम से विस्तार मिला।अध्यात्मग्राही मधुरिमा जी के कई संग्रह भी प्रकाशित हुई।जिनमें बाँसुरी में फूल आ गए,खंडित पूजा,कई बरस के बाद,जाने कब हो फेरा, नीम के फूल,पाषाणी, स्वयंसिद्धा यशोधरा,आत्मा- कर्म,पुनर्जन्म और मोक्ष,ये भी तो हो सकता है,मैं औरत हूँ,आकाश होती हुई नदी,नीम के फूल आदि उनके प्रकाशित संग्रह हैं।
मुझे उनका बाँसुरी में फूल आ गए शीर्षक गीत बहुत पसंद है-
काठ की थी नाव मेरी देह, नेह के दुकूल आ गए
होंठ से छुआ जो श्याम ने, बाँसुरी में फूल आ गए
विभिन्न सम्मानों से सम्मानित डॉ. मधुरिमा सिंह 3 मार्च सन 2015 में इस संसार से विदा ले गईं।आज उनको नमन करते हुए इस शृंखला के अंतर्गत एक गीत के माध्यम से मैं उन्हें याद कर रही हूँ।
|| गीत ||
हाथ में संकल्प वाली दूब लेकर
भूल बैठी कामना के मंत्र सारे ।
मैं धरा की गंध भीगी भावना हूँ
पूर्ण जो होती नहीं वह कामना हूँ
ध्यान में उसके हुई हूँ लीन ऐसी
स्वयं ही साधक, स्वयं ही साधना हूँ
अर्घ्य सा अर्पित हुआ अस्तित्व मेरा
पाप मेरे सब भुलाकर कौन तारे।
फिर ऋचाओं के शगुन सुनने लगी हूँ
सांस के फूलों में सुधि बुनने लगी हूँ
दूर छिटकी लालिमा अंबर पटल पर
झील पर बिखरी धुनें चुनने लगी हूँ
धूप अटकी है शिखर पर मंदिरों के
अब बढ़ाकर हाथ संध्या ही उतारे।
प्राण से प्यारे ,अपरिचित हो गए सब
कौन जाने प्रश्न का उत्तर मिले कब
थिर अधर से नाम का मैं जाप करती
आचमन के पान को तत्पर हुई जब
अंजुरी का जल अचानक कांप जाए
कौन ऐसे नाम से सहसा पुकारे।
~डॉ. मधुरिमा सिंह
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