|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी

 || हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा ||

पंचम पुष्प : डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी

"उम्र है केवल काया की
मेरी कोई उम्र नहीं
मृत्यु अगर विश्राम है तो
आऊँगी दोबारा मैं"
20 फरवरी 2019 को अख़बारों में डॉ.महाश्वेता चतुर्वेदी को विदाई देते हुए उनकी इन्हीं पंक्तियों को हेडलाइन बनाया गया था।वास्तव में ऐसी प्रतिभाएँ अपने कृतित्व से अपनी आयु तय करती हैं इसीलिए उनकी केवल काया निर्जीव होती है कृतित्व अमर।
अंग्रेज़ी,हिन्दी, संस्कृत में एम. ए.,एल.एल.बी पी. एच. डी,डी. लिट् डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी का जन्म एक बहुत सुसंस्कृत परिवार में हुआ।विदुषी माँ प्राचार्या डॉ. शारदा पाठक एवं विद्वान पिता आचार्य रमेश वाचस्पति शास्त्री की पुत्री महाश्वेता बचपन से ही मेधावी थीं।2 फरवरी 1954 को इटावा में जन्मीं महाश्वेता जी को विद्यालय जाने से पूर्व ही उनकी माँ ने पंचतंत्र,दशकुमार चरितम, कादम्बरी तथा किरातानुरणीयम के विषय में जानकारी दे दी थी।वैदिक ऋचाओं की अनुगूँज से उनकी सुबह और संध्या खनकती तो सांस्कृतिक कथाओं से दिनांत होता।बचपन से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था और अंत समय तक लिखती रहीं।
चूँकि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती थी तो मेरे समक्ष उनकी बहुत सारी विशेषताएं उनके सान्निध्य से भी उजागर होती रहीं।मेरे परिवार की उनकी ससुराल से रिश्तेदारी भी रही।इस कारण मेरे पिता जी उनके भाई लगते थे।मेरा गृह नगर बदायूँ उनका ससुराल था।बहुत सरल और सीधे स्वभाव की महाश्वेता जी विवाह के कुछ बरस अपने पतिदेव की माँ तुल्या से मिले संत्रास से पीड़ित रहीं।अपने तीन काव्य संकलनों का समवेत संकलन'स्वर्णाम्बरा' में वे लिखती हैं कि कविता ने उन्हें संत्रास के इन असह दिवसों में टूटने से बचाया।कुछ वर्षों बाद तमाम व्यवधानों के बीच भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर डॉ. महाश्वेता बरेली में एक महाविद्यालय में प्रोफेसर नियुक्त हुईं।
उनके निर्देशन में कई शोध हुए।उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर भी अनेक शोध हुए ।अनगिनत भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद हुए।अंग्रेज़ी और हिन्दी में समान रूप से अधिकार रखने वाली विदुषी महाश्वेता जी द्विभाषिक पत्रिका 'मंदाकिनी' का भी सम्पादन करती थीं।उनके अनेक संग्रह प्रकाशित हुए।अनेक शोध पत्र भी।
महाश्वेता जी ने कविता की हरेक विधा में लिखा।गीत,ग़ज़ल,दोहा,मुक्तछंद इत्यादि।गद्य भी ख़ूब लिखा।
किसी रस में भी बंध कर नहीं रहीं।विविध विषयों पर लिखती रहीं।
लिखना उनके लिए एक कार्य था।किसी को शुभकामना देतीं तो लिख कर,शोक व्यक्त करतीं तो लिखकर।कह सकते हैं कि वो बहुत लिक्खाड़ प्रवृत्ति की थीं।मैं जब भी उनके घर जाती काग़ज़ पेन खुला हुआ ही पाती।किताबों और सम्मानपत्रों से उनका घर भरा हुआ था।
अनेक विदेश यात्राएं कीं उन्होंने।ख़ूब ऊर्जित रहतीं यात्राओं के लिए।सुदर्शना थीं।साड़ियाँ उनके गोरे रंग पर ख़ूब फबतीं।बड़ी सी बिंदी लगातीं।अक्सर मोतियों की माला पहनतीं।चेहरे से ही उनकी प्रज्ञा झलकती।संगीत की शिक्षा ली थी उन्होंने।बड़ा सुरीला गातीं।सर्वगुण सम्पन्न कह लीजिए उन्हें।
कवि सम्मेलनों में जब भी शिरकत करतीं आभा बढ़ जाती मंच की।सीधे-सीधे काव्य पाठ करतीं।शब्दों में किफ़ायत बरततीं।स्मृति अच्छी थी।काग़ज़ लेकर पढ़ते नहीं देखा मैंने।आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों में मेरा उनका साथ रहा।
हर अवसर के लिए उनके पास नई कविता रहती।धुन भी बहुत मनहर बनाती थीं।
हम एक साहित्यिक यात्रा पर मॉरीशस गए थे।8 दिन साथ रहे हम।अत्यंत उदार,ममतामयी महाश्वेता जी मुझ पर इतना स्नेह बरसातीं कि ग्रुप के अन्य लोग हमको माँ बेटी कहते।करवाचौथ भी पड़ा उन्हीं दिनों।उन्होंने मुझसे करवा बदलवाए।
बचपन से मेरे घर आती जातीं थीं वो।बुआ पुकारती थी मैं उन्हें।उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का प्रतिष्ठित 'साहित्यभूषण' सम्मान जब उन्हें मिला तो हमने उनका बदायूँ में सम्मान समारोह आयोजित करवाया था।आँसू भर आये थे उनके। मेरी माँ से बोलीं -'मंजुल,आज उसी ससुराल में सम्मानित हुई हूँ जहाँ से प्रताड़ित होकर गयी थी'।सौभाग्य से उनके जीवनसाथी ने उनका क़दम-क़दम पर साथ दिया।आज भी वो उनकी किताबों को,उनकी निशानियों को बहुत मन से सहेजे हुए हैं।
आज उनकी ये रचना गाकर मुझे वो सारे क्षण स्मृत हो आये हैं जो उनके साथ गुज़रे।उन्हें विनम्र प्रणाम।
भाषणों की जगह आचरण चाहिए,
देश का शुद्ध वातावरण चाहिये।
दृष्टियों में हो विज्ञान और ज्ञान भी,
अंधविश्वास पर आक्रमण चाहिए।
बीत जाए न जीवन ही सोते हुए,
रात में भी हमें जागरण चाहिए।
चल रहे नित्य नूतन सृजन हैं यहाँ,
बुद्धि बल से सभी का वरण चाहिए।
सिर्फ चलना ही चलना ही जीवन नहीं,
श्वेता चलने का भी व्याकरण चाहिए।
~डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी


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