अपने जज़्बात रोकना सीखा, मैंने दरिया को सोखना सीखा
||ग़ज़ल||
अपने जज़्बात रोकना सीखा,
मैंने दरिया को सोखना सीखा.
पहले दिल से मैं काम लेती थी,
अब ज़हन भी टटोलना सीखा.
जिस पे चलती थी बेसबब अब तक,
मैंने रस्ता वो छोड़ना सीखा.
घर की खिड़की ही खोलती थी मैं,
मन की खिड़की भी खोलना सीखा.
रोज़ लिख-लिख के चिट्ठियाँ ख़ुद को,
मैंने चुपचाप बोलना सीखा.
अपनी ख़ुश्बू को लौटता पाकर,
फूल सारे बटोरना सीखा.
सोचते वक़्त तेरे बारे में,
अपने बारे में सोचना सीखा.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें