|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा || इंदिरा इंदु

|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परंम्परा ||
नवम पुष्प : इंदिरा इंदु
अपने गरिमापूर्ण व्यक्तित्व और सशक्त कविताओं की उत्तम एवं सुरीली प्रस्तुति के कारण काव्य मंचों पर एक अलग और उल्लेखनीय पहचान रखने वाली कवयित्री इंदिरा इंदु जी को आज इस सीरीज़ के माध्यम से प्रणाम कर रही हूँ।
महादेवी वर्मा,सुमित्रा कुमारी सिन्हा और स्नेहलता श्रीवास्तव के बाद इंदिरा इंदु मंच से जुड़ी ही नही देश भर में छा गईं।
पिता जी डॉ. उर्मिलेश ने 1975 के आसपास से कवि सम्मेलनों के अत्यधिक पसंद किए जाने वाले कवि के रूप में प्रतिष्ठा पा ली थी।बचपन से मैंने देश के अनेक शहरों के नाम सुन लिए थे।लेकिन मुरैना शहर न केवल इसीलिए कि पिता जी वहाँ कविसम्मेलनों में जाते हैं बल्कि इसीलिए भी मेरे लिए परिचित शहर था कि वहाँ इंदिरा इंदु आँटी रहती हैं।
मुझे बचपन की कुछ झलकियाँ आज भी याद हैं।जब मैंने पहली बार उन्हें देखा था और मैं उनके लंबे क़द,गले में रुद्राक्ष की माला,घुँघराले लंबे बाल,चौड़े माथे पर लम्बा लाल टीका देख कर बड़ी प्रभावित हुई थी।कद्दावर लगती थीं काफ़ी।
मुझे याद है कि जाड़ों में हाई नेक स्कीवी पहना करती थीं साड़ी के साथ।
ख़ूब ऊँचा स्वर था उनका,रचनाएँ भी ख़ूब प्रभावशाली।शृंगार के साथ-साथ समसामयिक विषयों पर भी लिखने वाली इंदु जी उस समय मंच की एकमात्र कवयित्री थीं।सम्भवत: 1980 से 1990-92 तक।
तत्कालीन समय में प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी से प्रसिद्ध वक़ील श्री राम जेठमलानी रोज़ एक सवाल पूछते थे।उसी दौरान इंदु जी की की एक कविता 'मैया मोरी छेड़त जेठमलानी' बहुत प्रसिद्ध हुई।फिर तो उनके काव्य पाठ में सबसे पहले उनसे इसी रचना की माँग होती थी।
पिता जी की समवयस्क ही रही होंगी वो।1950-1951 के आस पास शायद जन्मी हों।उनकी जन्मतिथि के बारे में जानकारी नहीं मिल सकी।दुख हुआ कि इतनी प्रतिभावान कवयित्री की एक भी रचना इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है।ना ही उनका विस्तृत परिचय।इंदिरा जी का पूरा परिवार साहित्य से जुड़ा हुआ था।उनके पिता,दादा,परदादा बड़े कवि थे।
इंदिरा इंदु के पितामह नाथूराम शर्मा शंकर अपने समय के हिंदी के बड़े कवि थे ,बाबा हरिशंकर शर्मा और पिता कृपा शंकर शर्मा भी चर्चित कवि रहे। कवि कुल परम्परा में पली बढ़ी इंदिरा इंदु मंच परपरा में मूर्धन्य कवयित्री थी।
लखनऊ में उस समय सर्वाधिक कवि सम्मेलन आयोजित करवाने वाले श्री अनूप श्रीवास्तव जी बताते हैं कि इंदु जी बहुत हाज़िर जवाब थीं।एक बार एक कवि सम्मेलन में मंच के पीछे बड़ा कोलाहल हो रहा था। किसी ने कुछ टिप्पणी की इसको लेकर,इस पर इंदु जी बोलीं ये 'कोलाहल'नहीं है ये 'ऐल्कहॉल' है।ऐसे ही किसी ने पूछा- चंबल में डाकुओं के बीच रहकर डर नहीं लगता इंदु जी?
बोलीं-इतने कवियों के साथ मंच पर बैठी हूँ तो अब डाकुओं से क्या डरूँ?
उनकी इस हाज़िरजवाबी से ख़ूब घनघोर तालियाँ बजीं।
अनूप जी बताते हैं कि जब वो कविता पढ़ती थीं तो सदन झूम उठता था।
लेकिन दुर्भाग्य रहा कि उन्हें उम्र बहुत कम मिली।नहीं तो हम उनके वृहद रचनात्मक निधि के साक्षी बनते।पति की असामयिक मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया।अपने अंतिम समय में मानसिक रूप से कुछ असंतुलित सी हो गयी थीं।
आज उनकी रचना प्रस्तुत कर मैं उन्हें अपनी आदरांजलि दे रही हूँ।
||ग़ज़ल||
तेरे नाम पर लहू की नदियाँ अगर बहेंगी
मेरी आस्थाएँ कैसे तुझे देवता कहेंगी
ये कहो ख़ुदा के बंदों तुम्ही जब नहीं रहोगे
तो कहाँ बनेंगे मंदिर कहाँ मस्जिदें रहेंगी
जो मिली हैं मजहबों के मुझे यातना ग्रहों से
वो सजायें और कब तब मेरी बेड़ियाँ सहेंगी
नए दौर के ख़ुदाओं ये बताओ और कब तक
ये ज़हर घुली हवाएं मेरे देश में बहेंगी
यही फ़ैसला है मेरा,यही फ़ैसला रहेगा
या तो मैं रहूँगी घर में या ये बिजलियाँ रहेंगी
ये अज़ान और ये पूजा सभी बेटियाँ हैं 'इंदु'
मेरे घर में चहचहाती ये रही हैं और रहेंगी
~इंदिरा इंदु






 

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