सहने वाले कमाल करते हैं
किसी ने हमें उजाला कहा हमें अच्छा लगा।हम दीपक की तरह प्रज्वलित रहना उसके समक्ष ज़रूरी मान लेते हैं ।
कोई हमें ऊर्जा कह-कह कर अभ्यस्त कर देता है एक नदी सा परिवर्तित होने में ।हम नदी से कल कल बहने लगते हैं,हमारी ऊर्जा भी साझी होने लगती है जल की तरह।
हम बिना देरी किये एक घने तरुवर में बदल जाते हैं जब कोई हमें शीतल छाँव सा बताता है।उसके धूप से दुख पर छाँव सा सुख बन कर छा जाने की हमारी जैसे अब ज़िम्मेदारी है।
हम रात में भी उजाला चीन्हने की पुरज़ोर कोशिश में लगे रहते हैं जब कोई हमें भोर सा सकारात्मक कह कर परिभाषित करता है।
कोई हमें सुगंध कहता है हम ख़ुद को रोक नहीं पाते अपने भीतर के वो सारे पराग कण बटोरने में जो हमें और सुगंधित कर दें।
हमें कोमल बताते हुए फूलों की उपमा दी जाती है और दिया जाता है हमें अपनी कोमलता को सिद्ध करने का अपरोक्ष दबाव भी।हम सहने लगते हैं काँटों से कटाक्ष और पीड़ाओं की पैनी हवाएँ क्यों कि हम तो फूल हैं।
हमारे व्यक्तित्व के सहज गुण कब हमारे आवश्यक गुण बना दिये जाते हैं हम जान ही नहीं पाते।लोग अपनी रिक्तियों को विभक्त करने के लिए हमें उन से सिक्त कर जाते हैं।ख़ुद को भारहीन करके हमें भार दे जाते हैं।क्योंकि हम पहचान लिए गए हैं कि हम ग्राही हैं।
लेकिन
फूल तो कभी ख़ुश्बू से नहीं रीतते
नदी कभी जल से नहीं
भोर कभी किरणों से नहीं
हवा कभी गति से नहीं
पेड़ कभी छाया से नहीं
झरने कभी ऊँचाई से नहीं
लेकिन हम रीतते हैं।क्योंकि ये फूल,ये झरने,ये हवा,ये पराग,ये नदियाँ ये भोर नहीं हैं हम।जब हमें हमारी भावनाएं एकतरफ़ा निवेश लगने लगती हैं।हम ठगे से रह जाते हैं।प्रगल्भता हममें नहीं।
कर्तव्य,समझदारी,ज़िम्मेदारी,सद्भाव, अपनत्व,करुणा,त्याग,अनुराग के धागों से हम अपनी ज़िंदगी के रूमाल पर कुछ फूल काढ़ते हैं।लेकिन ये रूमाल फिर हमारे ही आँसू पोंछने के काम आते हैं।
फिर भी अपने सुकोमल भाव देकर ख़ुद के रिक्त होने का सुख भी हमें संतुष्टि देता है या हम इसी में अपना सुख तलाशने लगते हैं।कभी कभी स्वयं को विशेष गुणी मान बैठते हैं।जबकि इतने अच्छे हैं कहाँ हम?
कहीं न कहीं हम अतिरिक्त सम्वेदनशील हैं।हमारी मिट्टी जन्मजात हमारी संवेदनशीलता से गीली है जो कभी सूखती ही नहीं।विवश हैं।
और इसी गीली मिट्टी में हमारे वो गुण भी हरे भरे बने रहते हैं जिन्हें कभी कभी हम नोंच देना चाहते हैं एक बंजर किरदार बनने की इच्छा में।
ये शेर भी कुछ कुछ ऐसा ही है-
कहने वालों का कुछ नहीं जाता
सहने वाले कमाल करते हैं
सच
झील में कंकर फेंकने वाले को फ़िक्र कहाँ होती है कि झील कितनी देर तक थरथराई।
सोनरूपा
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