हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || ज्ञानवती सक्सेना



| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा ||
तृतीय पुष्प : ज्ञानवती सक्सेना
कंचन काया ,कंचन काया
सुनते -सुनते ऊब गई मैं
भंवर चीरकर तैर रही थी
नाव देखकर डूब गई मैं
गहराई में भी जीवित हूं
यद्यपि सिर से ऊपर पानी
गज औ' ग्राह कथा के नायक।
याचक भाव न मुझे गंवारा।
सारे संकट रही झेलती
मैंने तुमको नहीं पुकारा
हां हां बहुत ढीठ निकली मैं
अब मत देना जनम दुबारा।
वर्ष २००० में मुद्रित संग्रह में गीत के घर की किरण में पाठकों से रूबरू होते हुए ज्ञानवती सक्सेना लिखती हैं-
'यूँ तो संघर्ष किसके जीवन में नहीं आते पर मेरे संघर्ष गीतों को निखारने के लिए ही आये थे और मैं पीड़ा का वरदान लेकर गीतों में ही जीने लगी।'
बरेली निवासिनी विदुषी कवयित्री ज्ञानवती सक्सेना एवं स्नेहलता स्नेह को महीयसी महादेवी वर्मा के बाद मौलिक,भद्र,शालीन एवं सुकंठी कवयित्रियों के रूप में जाना जाता था।कवि सम्मेलन में इनकी उपस्थिति गरिमा और शालीनता का पर्याय हुआ करती थी।
मेरे पिता डॉ उर्मिलेश उनके बहुत प्रिय अनुज रहे।उनकी स्नेह वर्षा हमारे परिवार पर हमेशा बनी रही।
ज्ञानवती जी ने छः वर्ष की अवस्था से ही शब्दों से उलझने की शुरुआत कर दी थी ।साहित्य में स्थान बनाये रखने की कोई महत्वाकांक्षा न रखने वाली ज्ञानवती जी जीवन पर्यन्त अपने जीवन के उतार चढ़ाव को गीतों में ढालती रहीं।
हल्के रंगों की सादा सी साड़ियां पहनती थीं,साधारण सा नाक नक्शा था उनका।इसी तरह कविताओं में भी कोई शाब्दिक व्यायाम नहीं बल्कि सम्वेदनाओं की सुई से गीतों की पोशाक बनाया करती थीं वो।उनकी कृति 'गीत के घर की किरण'जब पापा की लाइब्रेरी में मिली तो मैं बिना रुके एक ही सिटिंग में पूरा पढ़ गयी।ये कृति शिल्प और भाव का अनुपम उदाहरण है।सुना है कि जब भी वो कवितापाठ करतीं तो लगता जैसे करुणा बरस रही है स्वर से।
सन 13 अगस्त 1926 में जन्मी ज्ञानवती सक्सेना जी बचपन से ही काव्य लेखन की ओर उन्मुख हो गयी थीं।माँ संगीत की जानकार थीं।इनके भीतर भी लय और शब्द की लहरें हिलोरे मारने लगी थीं।कम उम्र में ही विवाह हो जाने के कारण उच्च शिक्षा से वंचित रह गईं।लेकिन जीवन के विश्व विद्यालय के अनुभवों ने इन्हें भरपूर शिक्षित किया।इनके जीवन का एक कारुणिक पक्ष ज्ञानवती जी का विवाहित होते हुए भी इस सुख से वंचित रहना रहा।पति सन्यासी स्वभाव के थे।कभी-कभी ही घर पर आते थे।घर को इन्होंने अपने दम पर ही चलाया।यही पीड़ा का ज्वार गीतों के रूप में फूट पड़ा।
लेकिन सिर्फ़ करुणा ही उनके गीतों का प्रमुख स्वर रही ऐसा नहीं।स्त्री अस्मिता,दृढ़ आत्मविश्वास,सामाजिक जागरूकता से भी लबरेज़ हैं उनके गीत।
गीत प्रिया,बावरी राधा,वीणा के टूटे तार,राधा की अन्तिम यात्रा,एक खिलौना मिट्टी का,श्रीमद्भगवद्गीत-गंगा,वनवासिनी सीता,जीवन ही वनवास हो गया,अशोकवन में सीता उनकी कृतियों के नाम हैं।उत्तर प्रदेश संस्थान से साहित्य भूषण सम्मान प्राप्त ज्ञानवती जी को उनके साहित्यिक योगदान के लिए पूरे देश में अनगिनत सम्मानों से सम्मानित किया गया।
जिजीविषा और पकी उम्र में भी रचनात्मक रहने वाली ज्ञानवती जी 94 साल की उम्र में कूल्हा टूट जाने से लाचार हो गयीं।लेकिन फिर भी मानसिक और साहित्यिक रूप से सक्रिय बनी रहीं।16 जनवरी,2019 को व्हाट्सअप पर संदेश मिला कि ज्ञानवती जी नहीं रहीं।कुछ देर बाद उनकी निर्जीव काया का फोटो भी।उस समय जो मौन और आत्मिक श्रद्धांजलि का भाव उतरा वही आज उनके गीत के माध्यम से उन्हें मैं स्वरांजलि स्वरूप दे रही हूँ।
||गीत||
दर्द ने इतना निखारा है मुझे
देह मेरी दर्पणी-सी हो गयी।
पाँव के नीचे धरा हटने लगी
तो विवश आकाश में उड़ना पड़ा
जब अँधेरे का चलन खलने लगा
तो घटाओं से मुझे लड़ना पड़ा
क्या हुआ ,काजल कपोलों पर लगा
दृष्टि तो हीरा-कनी सी हो गयी।
जग गया मेरा अहम तो जी गयी
अन्यथा कब की सुलग जाती चिता
कौन सा विष था नहीं मैंने पिया
नाम मेरा पड़ गया अपराजिता
बुझ रही थी तो धुएँ की घुटन थी
जल पड़ी तो चाँदनी सी हो गई।
धर्म काँटे पर तुलूँ क्यों,किस लिए
मैं समय की हर तुला पर तुल चुकी
शीश गंगा जल चढ़ाऊँ किस लिए
जबकि पावन आँसुओं से धुल चुकी
गुनगुनाना भी जहाँ अपराध था
मैं वहीं पर रागिनी सी हो गयी।
~ ज्ञानवती सक्सेना








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