|| हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || : इंदिरा गौड़

 || हिन्दी कवि सम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा ||

प्रथम पुष्प:इंदिरा गौड़

मुक्त नभ को छोड़ भूले से
अरे क्या चुन लिया
एक पिंजरा देह का था
एक ख़ुद ही बुन लिया
आर्त स्वर हूँ प्रार्थना के
हो गए क्यों देव बहरे।
मैं सतह पर जी न पायी
और तुम उतरे न गहरे।
पता नहीं,ऐसा है या नहीं लेकिन ये मेरा आकलन है कि कुछ रचनाकार अपनी रचनाओं का महत्व और मूल्य जीवनपर्यंत केवल अपने लिए ही समझते है।अपनी रचनात्मकता का संतोष उन्हें आकांक्षाओं का अभिलाषी नहीं बना पाता।जबकि ऐसा नहीं है।उनकी रचनाओं का मूल्य और महत्व उन्हें पढ़ने,सुनने और गुनने वाले भी तो समझते हैं।कभी कभी तो उनसे भी ज़्यादा।कवि का काम इतिहासकार,धर्मगुरु,दार्शनिक,अध्यापक से कम नहीं।बल्कि और अधिक महत्वपूर्ण है।जो भाव ह्रदय में घर कर जाए वो भूला कहाँ जाता है।
ऐसे ही अपनी सुकोमल गीतों से ह्रदय को पनीला कर देने वाली बाँसुरी का नाम था श्रीमती इंदिरा गौड़।
मैं उनसे और उनके गीतों से इतने विलंब से परिचित हुई कि बस उनके जाने की बेला थी और मैं उनके गीत सुनने की अबुझ प्यास लिए उनसे मिलने की अभिलाषी।और अभिलाषा अभिलाषा ही रह गयी।
लेकिन उनको जानने की उत्कंठा को थोड़ा संतोष मिला जब वरिष्ठ गीतकर श्री बुद्धिनाथ मिश्र जी का इंदिरा जी पर लिखा एक आलेख मैंने फेसबुक पर पढ़ा।
इधर जब हिन्दी कवि सम्मेलन में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा पर कुछ जानकारी एकत्र करने का विचार आया तो मुझे मिश्र जी के लेखों का यकायक ध्यान आया।जो उन्होंने पिछले वर्ष फेसबुक पर शेयर किए थे।मैंने जब उनसे आलेख के कुछ अंश लेने की अनुमति माँगी तो उन्होंने कहा कि तुम्हें तो पूरा अधिकार है कि इन लेखों से प्राप्त जानकारी को तुम उपयोग करो।पूछने की भी कोई आवश्यकता नहीं थी।मुझे बहुत अच्छा लगा कि अब मेरा प्रयास फलीभूत हो जाएगा।
आज गीतों की वीडियो की शृंखला की पहली कड़ी में मैं उन्हीं के आलेख का अंश जो इंदिरा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को उजागर करेगा,यहाँ शेयर कर रही हूँ।
||कुछ छुए अनछुए पहलू||
भारतीय साहित्य की परंपरा में कवि अपना परिचय नहीं दिया करता था। कालिदास ,भवभूति ,भास से लेकर विद्यापति ,सूर-तुलसी तक किसी ने अपनी आत्मकथा नहीं लिखी ,अपना परिचय नहीं दिया।महाकाव्य लिखनेवाले ने भी केवल अपना नाम दे दिया। बस। यह बात विदेशियों को अजीब लगी ,क्योंकि यूरोप आदि में कवि के नाम से संग्रहालय होते हैं ,जिनमें कवि द्वारा उपयोग में लायी गयी सारी वस्तुएँ संजोकर रखी जाती हैं। यह प्रवृत्ति भारतीयों में रंच मात्र भी नहीं है।वे पुस्तकों को भले ही देवता की तरह पूजें ,मगर उनके रचयिता का कोई ख्याल नहीं। जीवित है तो शाल-माला और मूल्यहीन प्रशस्तिपत्र देकर कृतार्थ किया और दिवंगत हुए तो कहीं चौराहे पर एक मूर्ति लगा दी ,जिसे साल में जयन्ती के दिन को छोड़कर बाकी दिन पक्षी गन्दा करते हैं। बड़े-बड़े महाकवियों के घर में उनका फोटो तक टंगा नहीं मिलेगा ,साहित्य उपलब्ध होना दूर की बात है। इधर आकर कवि इस ओर सजग हुए हैं। बल्कि बहुत-से लोगों ने साहित्यिक योगदान से अधिक आत्म -प्रचार पर जोर दिया है ।काष्ठ तक्षण कला के लिए प्रसिद्ध सहारनपुर नगर जिन साहित्यकारों के नाम से जाना जाता है ,उनमें कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर ',श्रीकृष्ण शलभ ,इंदिरा गौड़ ,राजेंद्र राजन प्रमुख हैं। इंदिरा जी इनमें सबसे ज्यादा अंतर्मुखी और अपेक्षाकृत अचर्चित रहीं। उनका पूरा परिचय इतना छोटा है कि एक रसीदी टिकट पर लिख दिया जा सकता है। एक समय था ,जब वे कवि सम्मेलनों के मंच की कोकिला थीं ,जो रमानाथ अवस्थी,भारत भूषण जैसे गीतकारों से होड़ लेती थीं। लेकिन जब काव्यमंच का रूप बिगड़ा और कविता की जगह फूहड़ हास्य सुनने-सुनानेवाले आ गए ,तब स्वभाव से अत्यंत संजीदा स्वभाववाली इंदिराजी ने कविसम्मेलनों को अलविदा कह दिया और पूरी तरह गृहस्वामिनी की भूमिका में रम गयी।उनका जन्म मथुरा में दिसंबर,1943 में हुआ था। इंटर तक वहां से किया। उसके बाद 1960 में सहारनपुर के श्री ओ.पी.गौड़ से शादी हो गयी और वे अपनी ससुराल आ गयीं ,जहाँ आगे की शिक्षा जारी रखते हुए स्नातक तक किया। कविता लिखने का शौक बचपन से ही था । तीन गीत संकलन प्रकाशित हुए-
सुधियों का कुम्भपर्व
तुलसी सहन की
और प्राण-बांसुरी
नगर में साहित्यिक संस्था 'समन्वय' के कार्यक्रमों में वे आती थीं।अनेक बार उनके घर 'पैरामाउंट' के फ्लैट में छोटी -छोटी काव्यगोष्ठियाँ होती रहती थीं। जितना सुन्दर लिखती थीं ,उतने ही मधुर कंठ से गाती थीं। 1972 तक उनके गीत काव्यमंचों पर खूब गूँजे। उसके बाद वे परिवार की सीमा में सिमट गयीं । उस दौर में यूट्यूब जिसे सुविधाएँ नहीं थीं कि उनके गीतों का स्वर भावी पीढियों के लिए सुरक्षित किया जा सकता । उन्होंने बाल-कविताएं भी खूब लिखी थीं। दो बालगीत संग्रह --'सात समंदर पार' और 'मिट्ठू मियाँ' प्रकाशित हैं। संतानों में एक बेटा और एक बेटी हुई ,जिसमें बेटी का देहांत 1995 में हो गया। उसके बाद इंदिराजी बिलकुल टूट गयीं। गत वर्ष यानि दिसंबर,2019 में उनका देहांत हो गया और इसके साथ ही हिंदी गीत का एक अत्यंत सुरभित स्वर अनंत में विलीन हो गया।
साभार-
बुद्धिनाथ मिश्र
|| गीत||
साथ कल थे चले,देखते-देखते
हम धरा रह गये तुम गगन हो गए
है विषैली हवा,फूल सब मर गए
निर्वसन शाख है,पात तक झर गए
जो न नभ छू सके,न धरणि पर रहे
हम वही पात हैं,तुम पवन हो गए
बाँच पाए न तुम भी हमें उम्र भर
जो सभी ने पढ़ी,तुम हुए वह ख़बर
शेष अपनी न कोई कथा,और तुम-
पुस्तकों में छपे संस्मरण हो गए
छू गया तम हमें,हम अँधेरा हुए
तुम उषा की छुअन से सवेरा हुए
हर क़दम पर ग़लत हम हुए,और तुम-
ज़िन्दगी की सही व्याकरण हो गए
वक़्त की धार में हम बहे तृण सदृश
तुमको पथ में मिले पुष्प,अक्षत, कलश
रेत पर की खिंची रेख हम, और तुम-
पत्थरों पर खुदे उद्धरण हो गए
स्वाति की ज़िद हमें थी,तृषित हम रहे
मिल गयी तृप्ति तुमको,बिना कुछ कहे
हम अतल में रहे सीपियों में बँधे
तुम लहर पर बहे आचमन हो गए
साथ कल थे चले,देखते-देखते-
हम धरा रह गये,तुम गगन हो गए
~इंदिरा गौड़



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