|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा || स्नेहलता'स्नेह'
|| हिन्दी कविसम्मेलनों में कवयित्रियों की गौरवशाली परम्परा ||
द्वितीय पुष्प :श्रीमती स्नेहलता 'स्नेह'
"गूँज रही शंखों की शाम
मंदिर को दीप का प्रणाम"
जिन्होंने भी कवयित्री स्नेहलता 'स्नेह' को काव्यपाठ करते सुना है वह अपने आप को धन्य समझते होंगे।स्नेह जी को उस समय सिद्ध गीतकार भारतभूषण जी का नारी रूप कहा जाता था। जब वे काव्यपाठ करती थीं तब उन्हें सुनकर श्रोता भावविह्वल हो जाया करते थे।बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जन्मी स्नेह जी लखनऊ की रहने वाली थीं।गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र जी बताते हैं कि अपने अत्यंत मधुर स्वर और शुद्ध गीतों के लिए जानी जाने वाली स्नेहलता 'स्नेह' हिन्दी काव्यमंच की एक पूरे युग की प्रतिनिधि कवयित्री रही हैं।जिनके गीतों का जादू श्रोताओं के सर चढ़ कर बोलता था।
रसज्ञ श्रोता एवं स्वयं एक अच्छे कवि,सम्पादक एवं लेखक श्री प्रदीप जैन बताते हैं कि मुज़फ्फरनगर में सन 1975 में उन्होंने एक कवि सम्मेलन में स्नेह जी को सुना।उस कविसम्मेलन का संचालन डॉ ब्रजेन्द्र अवस्थी कर रहे थे।कवियों में श्री शिव कुमार'अर्चन',आत्मप्रकाश शुक्ल,अशोक चक्रधर,कृष्णराज 'कृष्ण'जी भी आमंत्रित थे।सरस्वती वंदना के रूप में स्नेह जी के गीत से ही कवि सम्मेलन का प्रारम्भ हुआ।उन्होंने इतना शानदार सुनाया कि कवि सम्मेलन वहीं से जम गया।
उस गीत का मुखड़ा था-
गूँज रही शंखों की शाम
मंदिर को दीप का प्रणाम
वो कहते हैं आज की तरह पहले कवयित्री का सुदर्शना होने का महत्व नहीं था।बस कविता ही श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोलती थी।स्नेह जी के चेहरे पर चेचक के दाग थे,सांवला रंग और मोटे नैन नक्श लेकिन आवाज़ ऐसी सुंदर कि मन बंध जाए।
तो आज स्नेहलता 'स्नेह' जी को विनत प्रणाम करते हुए उनका ये गीत।
||गीत||
जितना नूतन प्यार तुम्हारा
उतनी मेरी व्यथा पुरानी
एक साथ कैसे निभ पाये
सूना द्वार और अगवानी।
तुमने जितनी संज्ञाओं से
मेरा नामकरण कर डाला
मैंनें उनको गूँथ-गूँथ कर
सांसों की अर्पण की माला
जितना तीखा व्यंग तुम्हारा
उतना मेरा अंतर मानी
एक साथ कैसे रह पाये
मन में आग, नयन में पानी।
कभी कभी मुस्काने वाले
फूल-शूल बन जाया करते
लहरों पर तिरने वाले मंझधार
कूल बन जाया करते
जितना गुंजित राग तुम्हारा
उतना मेरा दर्द मुखर है
एक साथ कैसे रह पाये
मन में मौन, अधर पर वाणी।
सत्य सत्य है किंतु स्वप्न में-
भी कोई जीवन होता है
स्वप्न अगर छलना है तो
सत का संबल भी जल होता है
जितनी दूर तुम्हारी मंजिल
उतनी मेरी राह अजानी
एक साथ कैसे रह पाये
कवि का गीत, संत की बानी।
~स्नेहलता'स्नेह'
[स्नेह जी इसी धुन में ये गीत गाती थीं,बुद्धिनाथ मिश्र जी का आभार कि उन्होंने ओरिजनल धुन मुझे बताई ]
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